Monday, 5 October 2015

पॉलिसी है ??? .... तो हो जाओ भर्ती …!!!

सालों पहले अक्सर सुनते-पढ़ते थे कि फलाँ नेता आई सी यू में भर्ती हो गया, या फलाँ बड़ा आदमी वेंटिलेटर पर रखा गया। वेंटिलेटर का मतलब नहीं समझ में आता था। बस यही समझ में आता था की ये सब भोग विलास जैसी कुछ चीज़ें हैं जो सिर्फ उच्च वर्ग को सहूलियत से मिलती हैं ! आई सी यू बोले तो दिल्ली बॉम्बे या और कोई बड़े शहर में .. बस ! उन दिनों अलीगढ़ के किसी अस्पताल में आई सी यू नहीं देखा -सुना था !

अब तो दो कमरे के अस्पताल, नर्सिंग होम में भी 'आई सी यू' है ! कल से नाक में सुरसुराहट सी थी.… अब सुबह से छींक आ रही है ... पड़ोस के नर्सिंग होम के डाक्टर साहब बोले ...एक सी टी ( CT Scan ) करा लीजिए और 'सिस्टर' को बोंल देता हूँ .. दिन भर आई सी यू में ओब्जर्व करेंगी ! अब आप पेसोपेश में ! आपका ऐरो और लुई फिलिप का पैंट-शर्ट उतार के हॉस्पिटल वाली हरी या नीली ड्रेस पहना दी जायेगी - वातानुकूलित आई सी यू में भर्ती - जहाँ तहां पुरे शरीर में कुछ क्लिप जैसा लगा दिया जायेगा - एक छोटे कमरे में लंबी लंबी सांस लेते हुए - अस्सी और नब्बे के उम्र वाले बूढ़े बाबा लोग के बीच में - अकेले ! आप चुप चाप आई सी यू के अंदर 'डाक्टर और सिस्टर' के हंसी मजाक को सुनते रहिए ! अब आप चुपके से वो केरला वाली गोरी नर्स को पास बुलाएँगे और बोलेंगे - सिस्टर मुझे सिर्फ छींक आ रही थी - वो बोलेगी - ब्लड सैम्पल ले लिया है ...सब ईलाज इसी छींक के लिये हो रहा है ...! उधर घर वाले नॉएडा - दिल्ली - अलीगढ  - कानपुर, अहमदाबाद  ताऊ - फूफा - फुफेरी बहन - बहनोई - चचेरी  बहन की ननंद की ननद के देवर जो नॉएडा के किसी फैक्ट्री में काम करते हैं - आपके पत्नी के फोन को बीजी रखेंगे ! अलीगढ वाले कुछ सगे सम्बन्धी भी खुश - आई सी यू में है - स्टेटस बढ़ गया - परिवार का ! कल तक जो सुख सुविधा देश के बड़े नेता लोगों को मिलता था - अब वो सुख सुविधा हम जैसे भी उठा रहे हैं - बच्चों को भी स्कूल में अपने दोस्तों से शेयर करने का मसाला मिला ! 

देर शाम तक आपका ब्लड रिपोर्ट आएगा ...सी टी स्कैन रिपोर्ट आएगा ..शाम को वो डा० श्री राम लागू बैठेगा ... बोलेगा सब कुछ नोरमल है ! एक टेस्ट बाकी रह गया ...एलर्जी वाला ..वो आप किसी दिन आकर करवा लीजियेगा ! फिर वो डाक्टर आपकी पीठ सहलायेगा ...यू यंग मैन ...! आप वो अस्पताल वाली ड्रेस में किसी गंभीर बीमारी के मरीज़ की तरह ..डाक्टर साहब का हाथ पकडेंगे ...वो फ़िल्मी स्टाईल में आपका हाथ अपने हाथ में ले लेगा ..आपकी पत्नी जो वहाँ खड़ी होंगी ..गर्व भरी नज़रों से आपको देखेंगी ..आप भी उसकी तरफ आशा भरी नज़रों से देखेंगे ...! 

फिर ..डिस्चार्ज .. सिस्टर ने डिस्चार्ज स्लिप बनायी ... बिल आया मात्र साढ़े सत्ताईस हज़ार - जिसमे ब्लड टेस्ट है ... दो बार डाक्टर की विजिट ...सी टी स्कैन ... डाइटीशियन की फीस.… और हाँ ....  एक सौ सैंतीस रुपैये की 'छींक वाली' दवाई भी :)) क्रेडिट कार्ड स्वैप हुआ ...आप शाम तक स्वस्थ होकर घर वापस ...रात भर वो केरला वाली गोरी नर्स की याद आयेगी ....कैसे वो हर घंटे ...आपका बुखार थर्मामीटर से नापती थी ... .अंत में देर रात ...आप अपनी पत्नी को बोलेंगे ...हॉस्पिटल बढ़िया है ...फिर दो बार जोर से छींकेंगे और फिर आप आराम से सो जायेंगे। … 
 

Tuesday, 12 August 2014

धर्म कहाँ छुप जाता है ??

- "पाँच पांडवों के लिए पाँच तरह से बिस्तर सजाना पड़ता है लेकिन किसी ने मेरे इस दर्द को समझा ही नहीं.. क्योंकि महाभारत मेरे नज़रिए से नहीं लिखा गया था!"
- सीता का असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?"
- कुंती ने द्रौपदी के लिए सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें."
- शूर्पणखा पूछती है, "मेरी गलती बस इतनी थी कि मैंने राम से अपने प्यार का इज़हार कर दिया था? इसके लिए मुझे कुरूप बना देना इंसाफ़ है?"
- शूर्पणखा सवाल उठाती है, "अगर शादीशुदा आदमी से प्यार करना ग़लत है तो राम के पिता की तीन पत्नियां क्यों थीं?

 ये कुछ तीखे संवाद हैं बीइंग एसोसिएशन की एक रंगमंच अभिव्यक्ति "म्यूज़ियम ऑफ स्पीशीज़ इन डेंजर" के  राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के सहयोग से मंचित इस नाटक में  सीता और द्रोपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से महिलाओं की हालत की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है लेखिका और निर्देशक रसिका आगाशे ने। 

ठीक ही है - धर्म की बातें तो बढ़ चढ़ कर सब कर लेते हैं पर सोचो जब रेप हो रहा होता है तब धर्म कहाँ छुप जाता है?? 

अगर समय नहीं निकाल पा रहे हैं तो पूरा नाटक यू-ट्यूब पर देखने के लिए यहां क्लिक करें-
https://www.youtube.com/watch?v=U2-f2Ryq_Dw

Monday, 4 August 2014

रिश्तों की अमरबेल

फ्रेंडशिप डे था कल !!! ना किसी फ्रेंड का मेसेज आया ना कॉल !!! .... मैंने भी नहीं किया। एक तो ये वायरल फीवर भी हद चीज होती है… हड्डियों का चूरन सा बनता लग रहा था। ऐसे में बातें करने की ज़हमत कौन करे। करे भी तो अगले से सुने क्या - "ओफ़्फो .... बीमार हो गए.....  डॉक्टर को दिखाया??  दवाई खाई??? "
  
जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं - एकाकीपन की तरफ बढ़ते जाते हैं। यह एकाकीपन आता है- क्यूँकि कभी हमारे इर्द गिर्द रहने वाले लोग जीवन की राह में हाथ छुड़ा लेते हैं ठीक वैसे ही जैसे हम छोड़ आते हैं औरों को.…   आखिर सारे दोस्त ताउम्र एक ही रास्ते पर तो नहीं चल सकते ना …   सबकी मंजिलें अलग -अलग हो जातीं हैं तो देर-सबेर रास्ते भी। 

किसी भी रिश्ते की जान होता है - संवाद !! जब रिश्ते में संवाद खत्म हो जाए - रिश्ते मुरझा जाते है - वे अंतिम दम तक जीने कि कोशिश करते हैं ..शायद संवाद हो जाए और उस रिश्ते की कुछ पत्तियां हरी भरी हो जाएँ !!! लेकिन संवाद होता नहीं और इसी इन्तजार में ..न् जाने कब रिश्तों की जड़ें भी सुखने लगाती हैं और फिर एक दिन वो रिश्ता खत्म हो जाता है..मर जाता है ! रिशों की इस पौध पर एक परजीवी बेल उपज आती है- अहंकार की अमरबेल !!!  एक बार हरे भरे रिश्ते को इसने छू लिया फिर उस रिश्ते को मुरझाने से कोई नहीं रोक सकता ..कोई भी नहीं ..एक पक्ष झुक भी गया ..फिर भी वो अहंकार रिश्ते के किसी टहनी में चुप चाप बैठा होता है ..अपने वक्त का इंतज़ार करता रहता है ...!  अब देखो - फोन हाथ में है..... सबके नंबर भी है परन्तु --- "हर बार मैं ही क्यूँ कॉल लगाऊं??"

जीवन में बना या खून से मिला कैसा भी हो हर रिश्ते में कई लेयर होती हैं - सम्मान, प्यार, दोस्ती, भरोसा, ईर्ष्या, वगैरा-वगैरा । इसमें एक लेयर होती है दोस्ती की - ये लेयर जितनी मजबूत होगी रिश्ता उतना ही टिकाऊ और लंबा होगा  … फिर चाहे नाम कोई भी हो- भाई-भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र या फिर पडोसी, सहकर्मी, सहपाठी या बॉस ही क्यूँ ना हो.     
     
पर् कुछ रिश्ते बहुत मजबूत होते हैं - कई साल - युग खत्म हो गए - कोई संवाद नहीं - बस एक हेलो ने जान फूंक दी.… कौन से हैं ये रिश्ते - शायद खून के रिश्ते या फिर शायद दिलों के रिश्ते !!!! 

Sunday, 15 June 2014

फिर कुनबा डूबा क्यूँ ?

मंहगाई  को झुठलाने के लिए सरकारें अक्सर आंकड़ों का खेल दिखातीं रही है।  जीडीपी, इनफ्लेशन रेट, ग्रोथ रेट और न जाने क्या क्या कोई समझ नहीं पा रहा है आखिर मंहगाई क्यूँ है।    

आम जनता सरकार की यह दलील मानने को तैयार नहीं  कि या तो मंहगाई है नहीं या कम हो रही है।  सरकार ने बड़े से बड़े अर्थशास्त्री, प्लानर लगा रखे है परन्तु आम जनता पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा। सरकार पर यह कहावत एकदम सटीक बैठती है--  "सारा  हिसाब ज्यूँ का त्यूं, फिर भी कुनबा डूबा क्यूँ?" 

इस कहावत के पीछे की कहानी कुछ यूँ है-

एक गणित शास्त्री ने अपने परिवार के साथ नदी पार करने से पहले नदी की गहराई नापी तथा पूरे परिवार की लम्बाई का जोड़ निकाला।  फिर इस नतीजे पर पहुंचा कि परिवार की औसत लम्बाई नदी की गहराई से ज्यादा है। तुरत-फुरत निर्णय ले वह गहरी नदी परिवार के साथ पार करने लगा परन्तु कुछ लोग डूब गए। उन्हें बचाने के चक्कर में बाकी भी बह गए। अब सवाल उठता है - सारा हिसाब ज्यूँ का त्यूं, फिर भी कुनबा डूबा क्यूँ?

Thursday, 20 March 2014

रानी

आप कई ऐसी लड़कियों को जानते होंगे, जिन्होंने अपने थोड़े प्रोग्रेसिव परन्तु थोड़े सामंती (फ्यूडल) पैरेंट्स से लड़ाई लड़ी, जो अपने घरों से बाहर निकलीं, दूसरे शहरों में पढ़ने गईं, अच्छी-बुरी  नौकरी की, पैसा कमाया। सारे सामंती रिश्तों को कहा, ''आउट''। लेकिन उस लड़के को सालों-साल तक नहीं कह पाईं, ''आउट'', जिससे वो प्रेम करने लगी थीं। उनमें प्रेम पाने की ऐसी अदम्य कामना थी, जो मां-पापा और घर के तमाम प्यार करने वाले लोग पूरी नहीं कर सकते थे। वो सारी कामनाएं, जो वो लड़का पूरी करता था, लेकिन वो भी बाकी हर मामले में बहुत सामंती और कंट्रोलिंग था। लड़कियां उसे नहीं कह सकीं, ''आउट''।

हाल ही में  "क्वीन" देखी। बक़ौल रानी, उसने कभी किसी को किसी चीज के लिए ना नहीं कहा। ना माँ-बाप से और ना मंगेतर से।  उनकी हर बात मानी। लेकिन फिर एक दिन घर से निकली दुनिया देखी और तमाम सामंती रिश्तों को बोला 'आउट' ....!!!

  

सभी लड़कियों को अपनी पहली फुर्सत में  या कहूँ तो  उससे भी पहले समय निकाल कर यह फ़िल्म देख आनी चाहिए। राजौरी गार्डन से लेकर छपरा, मोतिहारी, बस्‍ती, लखीमपुर खीरी तक की सब लड़कियों में एक रानी है। सब ढूंढो अपनी-अपनी रानी को, अपनी जिंदगानी को। हिंदुस्तान के सभी मर्दों से अनुरोध है कि वो भी जायें   … सब के सब ....  बाप, भाई , हस्बैंड, बॉयफ्रेंड  ख़ास तौर पर वो फ्यूडल खाविंद जो शादी के तुरंत बाद अपनी ब्याहता का सरनेम बदलना ऐसे जरूरी समझते हैं जैसे कोई संपत्ति-जायदाद खरीदने के बाद कागज़ात पर अपने नाम की रजिस्ट्री। 

Sunday, 16 June 2013

एक - अनेक !!

इतवार का दिन, दोपहर का समय, तेज बारिश शुरू हो गयी है ... इस साल मानसून जल्दी आ गया। खाने के बाद दीवान पर लेट गया .... 4 महीने का बेटे को भी साथ में लिटा लिया ... चारों तरफ हाथ पैर फैंक रहा है .. मुझसे कुछ कहना चाहता है शायद .. सोचता हूँ की कैसे ये इतने छोटे बच्चे अपनी बातें हम तक पहुंचा देते है ... आराम से .... बिना कोई लाग-लपेट के। सामने टीवी चल रहा है ... JDU और BJP के गठबंधन टूटने की घोषणा की जा चुकी है। NDTV वाले रवीश कुमार अपने पैनल में  4-5 लोगों को लिए बैठे हैं... कौन क्या कहना चाहता है, क्या करना चाहता है- समझ नहीं आ रहा। 

"पापा .. मुझे भी आपके पास सोना है .." कहते हुए बड़ा बेटा उसी दीवान पर मेरे पीछे लेट गया - एकदम चिपक कर। बच्चे निश्छल होते हैं ...  थोड़े स्वार्थी भी ... बाप के प्यार पर उसका भी हक़ है ... याद आया- आज फादर्स डे है... क्या ख़ास है आज ?? बच्चों के लिए तो रोज ही फादर्स डे - मदर्स डे  होता है। नींद के झोके से आने लगे हैं।

कुछ ख्यालात नींद में भी पीछा नहीं छोड़ते ... अब ये गुडिया का ख्याल अचानक कहाँ से आ गया?  ... कौन गुडिया ..??? अरे वही पूर्वी दिल्ली के गाँधीनगर वाली 5 साल की गुड़िया .... दो-ढाई महीने पहले वाली घटना याद है ना… वो तो शायद 3 हफ्ते एम्स के आईसीयू में गुजार कर वापस घर चली गयी थी ना ... ठीक हो गयी ना अब तक !! ... फिर उसके बाप का भी ख्याल आ गया ...  टीवी पर दिखा रहे थे उसे ... चेहरा ब्लर कर दिया था, केवल आवाज सुनाई दे रही थी ... बता रहा था कि  पुलिस वाले 2 हजार रुपये दे रहे थे मामला दबाने को ... 

ह्म्म्म ... मामला दब गया शायद ... अब ना कोई धरना है ना कोई प्रदर्शन। अब तो टीवी पर कोई खबर नहीं है उसकी। उसका बाप भी सोचता होगा कि अब प्रदर्शन क्यों नहीं हो रहे? क्या इसलिए कि उसकी गुड़िया अस्पताल से ज़िंदा वापस आ गयी? जब तक डाक्टर उसकी हालत क्रिटिकल बताते रहे टीवी वाले खूब झंडे-बैनर दिखाते रहे। निर्भया के केस में तो मानो तूफ़ान सा आ गया था। ......मर गयी थी ना वो !!! 

तो क्या मरना जरूरी है??? पर अगर मरना जरूरी होता तो सिवनी वाली गुड़िया .... वो तो मर गयी थी। उसका नाम भी तो गुडिया ही था ना .. 4 ही साल की थी। वहाँ तो कोई प्रदर्शन नहीं हुए ..।  सिवनी दूर है ना दिल्ली से .. नागपुर में  ... इसलिए शायद!!!

टीवी पर एक और न्यूज़ आई- कल हुए गुडगाँव की गुड़िया के रेप के सन्दर्भ में। तब जाके समझ आया कि  गुड़िया का ख्याल आया कैसे। आज सुबह ही तो अखबार में पढ़ा था, गुडगाँव की 5 साल की गुड़िया के बारे में। ये खबर तब से जहन में अटक गयी होगी शायद। 

कुछ बेचैनी सी हो रही है.. दोनों  बच्चे सो चुके हैं। बारिश अब काफी तेज हो गयी है। मुझे भी नींद आ रही है। बस बहुत हुआ .. अब और नहीं सोचना यह सब । हम एक गुड़िया  के बारे में तो सोच सकते हैं  यहाँ तो एक .. एक .. करके हो गयीं अब अनेक गुड़ियाँ !!!

 पता नहीं, क्या इतनी गुडियाओं के पिता भी एसे ही चैन से सो पाते होंगे ???

Sunday, 19 May 2013

टेबुल फैन !!!

भनभनाती गर्मी शुरू हो गयी है। हाल ही में बाजार घूमते हुए एक चीज महसूस हुई। बिजली के सामान की दुकानों से टेबुल फैन नदारत सा दीखा। कम से कम दिल्ली के बाजारों से तो तकरीबन गायब ही है।

सालों पहले हमारे घर में भी एक होता था। सीलिंग फैन और कूलर तो कमरे में ही रह जाते थे लेकिन मानो अगर शाम के वखत बरामदे, दालान या आँगन में बैठ कर बतियाना हो तो.... !!  बस टेबुल फैन उठा लाइए और स्टूल पे रख दीजिये। रात का खाना खाते समय टीवी नहीं देखते थे उन दिनों। रसोई के सामने ही आँगन था सो वहीं पर चारपाइयाँ  डाल  दी जातीं थीं। उनके दूसरी तरफ एक तिपाई या स्टूल पर विराजमान अपना टेबुल फैन मानो सब पर नज़र रखे है… बायें से दायें ... दायें से बायें ... स्विंग !!!  CFL भी नहीं होते थे तब ...  बल्ब की पीली रोशनी ... एक ट्रांजिस्टर ... फिलिप्स का या मरफी का .. क्या फर्क पड़ता है यार ...  विविध भारती ... बिनाका संगीतमाला .. और रसोई से  एक-एक कर बन कर आती चपातियाँ ... क्या कहना !!!

फिर रात में छत पे जाके पहले तो आठ-दस बाल्टी पानी मार कर तराई कीजिये .. चारपाइयाँ  लगाइये ..  फिर वही टेबुल फैन की गर्दन पकड़ के छत पे ले जाइये .. फिर से वही-  "स्विंग" ..!!!  खुला आसमान .... चाँद सितारे ... चौकीदार की सीटी ... वही ट्रांजिस्टर .. इस बार बीबीसी की हिन्दी समाचार सेवा ... मार्क टुली .. !!! कोई कहता- समाचार सीधे लन्दन से पढ़े जा रहे हैं .. हिन्दी में  ..!!!

दोपहर में भोजन के बाद टेबुल फैन के सामने तकिया लगा के पड़ जाइये .. सब रईसी फेल है ... मस्त नशीली नींद !!! ये लो ... लाईट चली गयी ..  मुह फेर के टेबुल फैन को देखिये ... खर्र-खर्र की आवाज धीरे-धीरे कम होती हुयी .. फिर सब शांत !!!

बचपन में  टेबल फैन को लेकर एक उत्सुकता रहती थी। चार- पांच बटन ....  जब मूड  हुआ, इधर उधर देखा कोई बड़ा देख तो नहीं रहा, बस कोई बटन टीप दिए .. जब तक पंखे के ब्लेड फुलस्पीड में  न आ जायें उनको देखते रहना ...।   मन करे कि  पंखे के बीचोंबीच उंगली घुसा दें ...!!!  या फिर पेंसिल लेकर जाली के पार घूमते ब्लेड से सटा दें - खरड- खरड !!!! भागो, वरना अब पिट जाओगे ... !!! कभी कभी शराफत से बस पंखे के सामने मुह करके खड़े है- सबकी हवा रोक कर !!  फिर और नजदीक मुह ले जाकर आवाज निकालना - आ..आ..आ..आ ... !! महसूस करो अपनी आवाज की वाइब्रेशन्स !!!

कितना अदभुत समय था जब पंखे की जाली की आवाज के शोर में भी मस्त नींद आ जाती थी …


Thursday, 8 November 2012

टाई !!!

कुछ चीजें लगता है जैसे हम पर जबरदस्ती थोप दी गयीं है। अब ये टाई को ही ले लो। ना जाने इसका अविष्कार किस देश में हुआ, क्यों हुआ, इसका पर्याय क्या है, क्या ढकती  है, क्या सवाँरती  है, कहाँ विकसित हुयी, कैसे दुनिया भर में फैल गयी, मुझे कोई ज्ञान नहीं। अब मुझे ही क्यों, कितनों को होगी इसकी जानकारी...?   बस अंग्रेजों के साथ भारत में  आ गयी और गले पड़ गयी।

भगवान भला करे उन स्कूल वालों का जहां मैं पढ़ा, पूरा टाई-मुक्त बचपन गुजारा। बड़े होने पर शादी-ब्याह या अन्य किसी समारोह में जाना होता था तो डैडीजी बड़ी तन्मयता से हम भाईयों के गले में टाई के छोर ना जाने कैसे-कैसे एक दूसरे में घुसा के, निकाल के, खींच के सैट करके मुस्कुराते हुए कहते थे- "अब बनी है सही नॉट !!" 

मैं वो नॉट खराब नहीं होने देता। सावधानी से उतार कर अगले इस्तेमाल के लिए रख लेता। जब भी आवश्यक होता पूरी श्रृद्धा के साथ वरमाला की तरह गले में डाल कर, एक हाथ से पहले से बँधी हुयी नॉट पकड़ के दूसरे हाथ से टाई का पतले वाला छोर, जो कि आवश्यक रूप से अन्दर की तरफ ही रखा जाता है, को खींच कर किसी तरह सैट कर लेता और जतन से अपनी शर्ट के कॉलर से ढाँप लेता। तमाम झंझटों से भरे हुए इस रंग-बिरंगे परिधान को पहने का सलीका ना मुझे आया और ना ही मैंने कभी सीखने का प्रयास किया।

शादी के वक़्त भी, मुझे अच्छे से ध्यान है, बरात की घोडी गेट पर खड़ी थी, बैंड बज रहा था, और मैं टाई  हाथ में लिए रिश्तेदारों से भरे घर में अपने डैडीजी को ढूंढ रहा था। ज्यदातर टाइयां जो मेरे पास हैं, वो मेरी पत्नी ने खरीदी हैं या किसी ने दी हैं। एक-दो बार मैं भी खरीदने गया हूँ। घनघोर कन्फ्यूज हो जाता हूँ। रंगों और किस्मों की इतनी वैरायटी .. !!  ठीक से समझ आ गया है कि महिलायें साड़ियाँ खरीदते वक्त इतनी कन्फ्यूज क्यों रहतीं हैं।



बरहाल, समय के साथ टाइयां  भी बदल रहीं हैं और उनको बांधने का स्टाइल भी। सिंगल-नॉट, विंडसर-नॉट, डबल-नॉट ... और ना जाने क्या-क्या। किसी जमाने में  केवल पुरुषों के गले पड़ने वाली टाई अब जींस, पेंट, शर्ट, टीशर्ट, पायजामा और हाफ पेंट की तरह ही लिंग भेद भूल कर महिलाओं की भी पसंद बनती जा रही है।

आप भी सोच रहे होगे कि आज ये अचानक टाई-पुराण कहाँ से शुरू हो गया। हुआ कुछ इस तरह कि मेरा पुत्र जो तीसरी कक्षा का छात्र है, उसने एक दिन एलान कर दिया कि अब वो इलास्टिक वाली "सुविधाजनक" टाई पहन कर स्कूल नहीं जाएगा। बस आ गयी नयी टाई  और साथ ही साथ खड़ी हो गयी एक विकट समस्या भी कि अब इसे बांधेगा कौन। किसी मित्र से मिन्नतें कीं ... बँधवा के दी। कुछ दिनों के बाद उसने उसकी गाँठ खोल ली। वही संकट फिर खड़ा हो गया। बहुत फटकार लगाई।  और टाई ... टाई  बेचारी पड़ गयी अलमारी के किसी कौने में।

अभी कुछ दिन पहले डैडीजी घर आए। आज सुबह-सवेरे ही वापस चले भी गए। उनके जाने के बाद जल्दी-जल्दी ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया। बेटे को भी फ़टाफ़ट तैयार कराया। थोड़ी देर भी हो रही थी। मैं गाड़ी निकाल कर तैयार था कि  देखा- बेटा हाथ में टाई लिए चला आ रहा है।  बस झुंझलाहट आ गयी- अब इसे बांधेगा कौन। बेटा चुपचाप पीछे की सीट पर बैठ गया। और बस फिर उसी तरह जैसे डैडीजी करते थे... टाई  के छोर को पकड़ के यहाँ से घुसाना .. वहाँ से निकालना....।  मैं गाडी चला रहा था लेकिन पूरा ध्यान बैकव्यू मिरर पर ..
.। परफैक्ट नॉट बाँधने के बाद बेटे ने विजयी मुस्कान के साथ उसी शीशे में मुझसे नजरें मिलाईं ... झटके के साथ गर्दन उठाई .. और गरूर से बोला - "देखा !!!"
 

Friday, 20 July 2012

सुपर स्टार..!!

दो दिन से TV पर राजेश खन्ना छाये हुए हैं.. FM पर भी राजेश खन्ना... अखबारों में भी राजेश खन्ना... भारतवर्ष के पहले सुपर स्टार.... कैसे बने राजेश खन्ना सुपर स्टार ??
बचपन से सिनेमा देख रहे हैं... मम्मी-डैडी के साथ जाते थे....  मल्टीप्लेक्स नहीं होते थे तब.... एसी  तो छोड़ ही दो.. कूलर वाला सिनेमा हॉल भी कहीं-कहीं ही होता था.. फिल्म लगती थी तो महीनों चलती थी.... शहर भर की दीवारें पोस्टरों से भर दी जातीं थीं..  रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगा कर प्रचार किया जाता था..  ये बड़ा सा एक पोस्टर सिनेमा हॉल की लगभग आधी इमारत को ढँके रखता था.... अन्दर लाल-काली रैक्सीन वाली सीटों की लाइन.... अन्दर की दीवारों पर ४५ अंश के कोण पर झुके सीलिंग फैन...  लोग भाग के सबसे पहले उन्हीं के पास वाली कुर्सियाँ पकड़ते थे ... बाकी शर्ट के ऊपर के २-३ बटन खोल के रूमाल से हवा मारते थे...  परदे पर राजेश खन्ना रो रहे हैं तो पब्लिक रो रही है... नाच रहे हैं तो पब्लिक सीटी- ताली मार रही है.... राजेश खन्ना की "विदाई" को कवर करने वाले आज कल के छोकरे टाइप जर्नलिस्ट कैसे अंदाजा लगा पायेंगे कि लोग एक ही फिल्म आठ-आठ बार देखते थे.... "कैसे देख लेते थे?" ...  कैसे??.. अजी बैलबौटम पहन के देखते थे .. बकरे के कान जैसे कॉलर वाली शर्ट पहन के देखते थे ... कई-कई बार देखते थे...  आखिर राजेश खन्ना कट बाल भी तो सैट कराने हैं... पूरा स्टाइल फौलो किया जाता था... लेडीस रूमाल पर राजेश खन्ना प्रिंटेड होते थे... मेरी माँ की उम्र की औरतें 'पुष्पा' हो जातीं थी जब वो कहते थे- "आई हेट टीअर्स"!!!
महान 'सुपर स्टार' को भावभीनी श्रधान्जली!!!!

Wednesday, 4 July 2012

यूपी के विधायक जी

आज के अखबारों की सुर्खियों में उत्तर प्रदेश से आयी एक खबर- मुख्यमंत्री ने एलान किया है कि राज्य के करीब ४०3 एम एल ए २० लाख रुपये तक की कीमत की अपनी पसंद की कोई भी कार सरकारी खर्चे से खरीद सकता है  मैं अखिलेश यादव के इस फैसले से सहमत हूँ  जिस व्यक्ति को आप चुन के प्रदेश की सर्वोच्च संस्था में भेज रहे हैं, जो औसतन ४-६ लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, विधानसभा में जिसके ध्वनिमत से करोडों के बजट पास होते हैं, अगर उसे पजेरो या स्कार्पियो मिल जाती है तो कौन बड़ी बात है  एक छोटा शहर, कस्बा, तहसील या दो ढाई सौ गाँवों को मिला कर बनता है एक विधायक का क्षेत्र   क्षेत्र में घूमना भी पड़ता है  सामाजिक कार्यों में आना-जाना तो लगा ही रहता है  तो क्या सरकारी रोडवेज में 'विधायकों के लिए आरक्षित' सीट पर सफ़र होगा? अगर सरकार उसे सुविधा उपलब्ध नहीं कराएगी तो वो चोरी करेगा  ईमानदारी से विधायकी करना आसान नहीं है   साधारण आदमी का तो एक ही दिन में भेजा घूम जाय  कोई सड़क पे गिट्टी डालने के टेंडर के लिए चक्कर लगा रहा है, कोई किसी लायसेंस के लिए, कोई नौकरी के लिए, तो कोई बेटी की शादी के लिए दो बोरे चीनी के लिए उधम मचाये फिर रहा है   सबको मैनेज करना पड़ता है   फिर अपनी जात वालों के सही गलत कामों पे लीपा पोती   किसी को ना कहा वो ही मुँह फुला ले  जनता ने अपना काम निकलवाना है....मुठ्ठी गरम करने को तैयार रहती है   तभी तो.. एसे लोगों को सुविधायें दे देनी चाहिए- सरकारी खजाने में सेंधमारी खुद ब खुद कम हो जायेगी