भनभनाती गर्मी शुरू हो गयी है। हाल ही में बाजार घूमते हुए एक चीज महसूस हुई। बिजली के सामान की दुकानों से टेबुल फैन नदारत सा दीखा। कम से कम दिल्ली के बाजारों से तो तकरीबन गायब ही है।
सालों पहले हमारे घर में भी एक होता था। सीलिंग फैन और कूलर तो कमरे में ही रह जाते थे लेकिन मानो अगर शाम के वखत बरामदे, दालान या आँगन में बैठ कर बतियाना हो तो.... !! बस टेबुल फैन उठा लाइए और स्टूल पे रख दीजिये। रात का खाना खाते समय टीवी नहीं देखते थे उन दिनों। रसोई के सामने ही आँगन था सो वहीं पर चारपाइयाँ डाल दी जातीं थीं। उनके दूसरी तरफ एक तिपाई या स्टूल पर विराजमान अपना टेबुल फैन मानो सब पर नज़र रखे है… बायें से दायें ... दायें से बायें ... स्विंग !!! CFL भी नहीं होते थे तब ... बल्ब की पीली रोशनी ... एक ट्रांजिस्टर ... फिलिप्स का या मरफी का .. क्या फर्क पड़ता है यार ... विविध भारती ... बिनाका संगीतमाला .. और रसोई से एक-एक कर बन कर आती चपातियाँ ... क्या कहना !!!
फिर रात में छत पे जाके पहले तो आठ-दस बाल्टी पानी मार कर तराई कीजिये .. चारपाइयाँ लगाइये .. फिर वही टेबुल फैन की गर्दन पकड़ के छत पे ले जाइये .. फिर से वही- "स्विंग" ..!!! खुला आसमान .... चाँद सितारे ... चौकीदार की सीटी ... वही ट्रांजिस्टर .. इस बार बीबीसी की हिन्दी समाचार सेवा ... मार्क टुली .. !!! कोई कहता- समाचार सीधे लन्दन से पढ़े जा रहे हैं .. हिन्दी में ..!!!
दोपहर में भोजन के बाद टेबुल फैन के सामने तकिया लगा के पड़ जाइये .. सब रईसी फेल है ... मस्त नशीली नींद !!! ये लो ... लाईट चली गयी .. मुह फेर के टेबुल फैन को देखिये ... खर्र-खर्र की आवाज धीरे-धीरे कम होती हुयी .. फिर सब शांत !!!
बचपन में टेबल फैन को लेकर एक उत्सुकता रहती थी। चार- पांच बटन .... जब मूड हुआ, इधर उधर देखा कोई बड़ा देख तो नहीं रहा, बस कोई बटन टीप दिए .. जब तक पंखे के ब्लेड फुलस्पीड में न आ जायें उनको देखते रहना ...। मन करे कि पंखे के बीचोंबीच उंगली घुसा दें ...!!! या फिर पेंसिल लेकर जाली के पार घूमते ब्लेड से सटा दें - खरड- खरड !!!! भागो, वरना अब पिट जाओगे ... !!! कभी कभी शराफत से बस पंखे के सामने मुह करके खड़े है- सबकी हवा रोक कर !! फिर और नजदीक मुह ले जाकर आवाज निकालना - आ..आ..आ..आ ... !! महसूस करो अपनी आवाज की वाइब्रेशन्स !!!
कितना अदभुत समय था जब पंखे की जाली की आवाज के शोर में भी मस्त नींद आ जाती थी …
सालों पहले हमारे घर में भी एक होता था। सीलिंग फैन और कूलर तो कमरे में ही रह जाते थे लेकिन मानो अगर शाम के वखत बरामदे, दालान या आँगन में बैठ कर बतियाना हो तो.... !! बस टेबुल फैन उठा लाइए और स्टूल पे रख दीजिये। रात का खाना खाते समय टीवी नहीं देखते थे उन दिनों। रसोई के सामने ही आँगन था सो वहीं पर चारपाइयाँ डाल दी जातीं थीं। उनके दूसरी तरफ एक तिपाई या स्टूल पर विराजमान अपना टेबुल फैन मानो सब पर नज़र रखे है… बायें से दायें ... दायें से बायें ... स्विंग !!! CFL भी नहीं होते थे तब ... बल्ब की पीली रोशनी ... एक ट्रांजिस्टर ... फिलिप्स का या मरफी का .. क्या फर्क पड़ता है यार ... विविध भारती ... बिनाका संगीतमाला .. और रसोई से एक-एक कर बन कर आती चपातियाँ ... क्या कहना !!!
फिर रात में छत पे जाके पहले तो आठ-दस बाल्टी पानी मार कर तराई कीजिये .. चारपाइयाँ लगाइये .. फिर वही टेबुल फैन की गर्दन पकड़ के छत पे ले जाइये .. फिर से वही- "स्विंग" ..!!! खुला आसमान .... चाँद सितारे ... चौकीदार की सीटी ... वही ट्रांजिस्टर .. इस बार बीबीसी की हिन्दी समाचार सेवा ... मार्क टुली .. !!! कोई कहता- समाचार सीधे लन्दन से पढ़े जा रहे हैं .. हिन्दी में ..!!!
दोपहर में भोजन के बाद टेबुल फैन के सामने तकिया लगा के पड़ जाइये .. सब रईसी फेल है ... मस्त नशीली नींद !!! ये लो ... लाईट चली गयी .. मुह फेर के टेबुल फैन को देखिये ... खर्र-खर्र की आवाज धीरे-धीरे कम होती हुयी .. फिर सब शांत !!!
बचपन में टेबल फैन को लेकर एक उत्सुकता रहती थी। चार- पांच बटन .... जब मूड हुआ, इधर उधर देखा कोई बड़ा देख तो नहीं रहा, बस कोई बटन टीप दिए .. जब तक पंखे के ब्लेड फुलस्पीड में न आ जायें उनको देखते रहना ...। मन करे कि पंखे के बीचोंबीच उंगली घुसा दें ...!!! या फिर पेंसिल लेकर जाली के पार घूमते ब्लेड से सटा दें - खरड- खरड !!!! भागो, वरना अब पिट जाओगे ... !!! कभी कभी शराफत से बस पंखे के सामने मुह करके खड़े है- सबकी हवा रोक कर !! फिर और नजदीक मुह ले जाकर आवाज निकालना - आ..आ..आ..आ ... !! महसूस करो अपनी आवाज की वाइब्रेशन्स !!!
कितना अदभुत समय था जब पंखे की जाली की आवाज के शोर में भी मस्त नींद आ जाती थी …
good capture of the childhood moments...........
ReplyDeletekeep it up....
बचपन की शरारतों का किस्सा सबका एक सा होता है क्या?अपना बचपन फिर से याद आ गया।तुम्हारी लेखनी में पूरी सहजता से की गयी क़िस्सागोई होती है।दिल छू लिया, शैलेन्द्र!
ReplyDeletevery well written !! bachpan ki yadein jaise ankhon ke samne ghumne lagi :)
ReplyDeleteKamaal ka likhte ho aap Shailendra ji... dil chhoo lete ho ..
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