Thursday, 8 November 2012

टाई !!!

कुछ चीजें लगता है जैसे हम पर जबरदस्ती थोप दी गयीं है। अब ये टाई को ही ले लो। ना जाने इसका अविष्कार किस देश में हुआ, क्यों हुआ, इसका पर्याय क्या है, क्या ढकती  है, क्या सवाँरती  है, कहाँ विकसित हुयी, कैसे दुनिया भर में फैल गयी, मुझे कोई ज्ञान नहीं। अब मुझे ही क्यों, कितनों को होगी इसकी जानकारी...?   बस अंग्रेजों के साथ भारत में  आ गयी और गले पड़ गयी।

भगवान भला करे उन स्कूल वालों का जहां मैं पढ़ा, पूरा टाई-मुक्त बचपन गुजारा। बड़े होने पर शादी-ब्याह या अन्य किसी समारोह में जाना होता था तो डैडीजी बड़ी तन्मयता से हम भाईयों के गले में टाई के छोर ना जाने कैसे-कैसे एक दूसरे में घुसा के, निकाल के, खींच के सैट करके मुस्कुराते हुए कहते थे- "अब बनी है सही नॉट !!" 

मैं वो नॉट खराब नहीं होने देता। सावधानी से उतार कर अगले इस्तेमाल के लिए रख लेता। जब भी आवश्यक होता पूरी श्रृद्धा के साथ वरमाला की तरह गले में डाल कर, एक हाथ से पहले से बँधी हुयी नॉट पकड़ के दूसरे हाथ से टाई का पतले वाला छोर, जो कि आवश्यक रूप से अन्दर की तरफ ही रखा जाता है, को खींच कर किसी तरह सैट कर लेता और जतन से अपनी शर्ट के कॉलर से ढाँप लेता। तमाम झंझटों से भरे हुए इस रंग-बिरंगे परिधान को पहने का सलीका ना मुझे आया और ना ही मैंने कभी सीखने का प्रयास किया।

शादी के वक़्त भी, मुझे अच्छे से ध्यान है, बरात की घोडी गेट पर खड़ी थी, बैंड बज रहा था, और मैं टाई  हाथ में लिए रिश्तेदारों से भरे घर में अपने डैडीजी को ढूंढ रहा था। ज्यदातर टाइयां जो मेरे पास हैं, वो मेरी पत्नी ने खरीदी हैं या किसी ने दी हैं। एक-दो बार मैं भी खरीदने गया हूँ। घनघोर कन्फ्यूज हो जाता हूँ। रंगों और किस्मों की इतनी वैरायटी .. !!  ठीक से समझ आ गया है कि महिलायें साड़ियाँ खरीदते वक्त इतनी कन्फ्यूज क्यों रहतीं हैं।



बरहाल, समय के साथ टाइयां  भी बदल रहीं हैं और उनको बांधने का स्टाइल भी। सिंगल-नॉट, विंडसर-नॉट, डबल-नॉट ... और ना जाने क्या-क्या। किसी जमाने में  केवल पुरुषों के गले पड़ने वाली टाई अब जींस, पेंट, शर्ट, टीशर्ट, पायजामा और हाफ पेंट की तरह ही लिंग भेद भूल कर महिलाओं की भी पसंद बनती जा रही है।

आप भी सोच रहे होगे कि आज ये अचानक टाई-पुराण कहाँ से शुरू हो गया। हुआ कुछ इस तरह कि मेरा पुत्र जो तीसरी कक्षा का छात्र है, उसने एक दिन एलान कर दिया कि अब वो इलास्टिक वाली "सुविधाजनक" टाई पहन कर स्कूल नहीं जाएगा। बस आ गयी नयी टाई  और साथ ही साथ खड़ी हो गयी एक विकट समस्या भी कि अब इसे बांधेगा कौन। किसी मित्र से मिन्नतें कीं ... बँधवा के दी। कुछ दिनों के बाद उसने उसकी गाँठ खोल ली। वही संकट फिर खड़ा हो गया। बहुत फटकार लगाई।  और टाई ... टाई  बेचारी पड़ गयी अलमारी के किसी कौने में।

अभी कुछ दिन पहले डैडीजी घर आए। आज सुबह-सवेरे ही वापस चले भी गए। उनके जाने के बाद जल्दी-जल्दी ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया। बेटे को भी फ़टाफ़ट तैयार कराया। थोड़ी देर भी हो रही थी। मैं गाड़ी निकाल कर तैयार था कि  देखा- बेटा हाथ में टाई लिए चला आ रहा है।  बस झुंझलाहट आ गयी- अब इसे बांधेगा कौन। बेटा चुपचाप पीछे की सीट पर बैठ गया। और बस फिर उसी तरह जैसे डैडीजी करते थे... टाई  के छोर को पकड़ के यहाँ से घुसाना .. वहाँ से निकालना....।  मैं गाडी चला रहा था लेकिन पूरा ध्यान बैकव्यू मिरर पर ..
.। परफैक्ट नॉट बाँधने के बाद बेटे ने विजयी मुस्कान के साथ उसी शीशे में मुझसे नजरें मिलाईं ... झटके के साथ गर्दन उठाई .. और गरूर से बोला - "देखा !!!"
 

Friday, 20 July 2012

सुपर स्टार..!!

दो दिन से TV पर राजेश खन्ना छाये हुए हैं.. FM पर भी राजेश खन्ना... अखबारों में भी राजेश खन्ना... भारतवर्ष के पहले सुपर स्टार.... कैसे बने राजेश खन्ना सुपर स्टार ??
बचपन से सिनेमा देख रहे हैं... मम्मी-डैडी के साथ जाते थे....  मल्टीप्लेक्स नहीं होते थे तब.... एसी  तो छोड़ ही दो.. कूलर वाला सिनेमा हॉल भी कहीं-कहीं ही होता था.. फिल्म लगती थी तो महीनों चलती थी.... शहर भर की दीवारें पोस्टरों से भर दी जातीं थीं..  रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगा कर प्रचार किया जाता था..  ये बड़ा सा एक पोस्टर सिनेमा हॉल की लगभग आधी इमारत को ढँके रखता था.... अन्दर लाल-काली रैक्सीन वाली सीटों की लाइन.... अन्दर की दीवारों पर ४५ अंश के कोण पर झुके सीलिंग फैन...  लोग भाग के सबसे पहले उन्हीं के पास वाली कुर्सियाँ पकड़ते थे ... बाकी शर्ट के ऊपर के २-३ बटन खोल के रूमाल से हवा मारते थे...  परदे पर राजेश खन्ना रो रहे हैं तो पब्लिक रो रही है... नाच रहे हैं तो पब्लिक सीटी- ताली मार रही है.... राजेश खन्ना की "विदाई" को कवर करने वाले आज कल के छोकरे टाइप जर्नलिस्ट कैसे अंदाजा लगा पायेंगे कि लोग एक ही फिल्म आठ-आठ बार देखते थे.... "कैसे देख लेते थे?" ...  कैसे??.. अजी बैलबौटम पहन के देखते थे .. बकरे के कान जैसे कॉलर वाली शर्ट पहन के देखते थे ... कई-कई बार देखते थे...  आखिर राजेश खन्ना कट बाल भी तो सैट कराने हैं... पूरा स्टाइल फौलो किया जाता था... लेडीस रूमाल पर राजेश खन्ना प्रिंटेड होते थे... मेरी माँ की उम्र की औरतें 'पुष्पा' हो जातीं थी जब वो कहते थे- "आई हेट टीअर्स"!!!
महान 'सुपर स्टार' को भावभीनी श्रधान्जली!!!!

Wednesday, 4 July 2012

यूपी के विधायक जी

आज के अखबारों की सुर्खियों में उत्तर प्रदेश से आयी एक खबर- मुख्यमंत्री ने एलान किया है कि राज्य के करीब ४०3 एम एल ए २० लाख रुपये तक की कीमत की अपनी पसंद की कोई भी कार सरकारी खर्चे से खरीद सकता है  मैं अखिलेश यादव के इस फैसले से सहमत हूँ  जिस व्यक्ति को आप चुन के प्रदेश की सर्वोच्च संस्था में भेज रहे हैं, जो औसतन ४-६ लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, विधानसभा में जिसके ध्वनिमत से करोडों के बजट पास होते हैं, अगर उसे पजेरो या स्कार्पियो मिल जाती है तो कौन बड़ी बात है  एक छोटा शहर, कस्बा, तहसील या दो ढाई सौ गाँवों को मिला कर बनता है एक विधायक का क्षेत्र   क्षेत्र में घूमना भी पड़ता है  सामाजिक कार्यों में आना-जाना तो लगा ही रहता है  तो क्या सरकारी रोडवेज में 'विधायकों के लिए आरक्षित' सीट पर सफ़र होगा? अगर सरकार उसे सुविधा उपलब्ध नहीं कराएगी तो वो चोरी करेगा  ईमानदारी से विधायकी करना आसान नहीं है   साधारण आदमी का तो एक ही दिन में भेजा घूम जाय  कोई सड़क पे गिट्टी डालने के टेंडर के लिए चक्कर लगा रहा है, कोई किसी लायसेंस के लिए, कोई नौकरी के लिए, तो कोई बेटी की शादी के लिए दो बोरे चीनी के लिए उधम मचाये फिर रहा है   सबको मैनेज करना पड़ता है   फिर अपनी जात वालों के सही गलत कामों पे लीपा पोती   किसी को ना कहा वो ही मुँह फुला ले  जनता ने अपना काम निकलवाना है....मुठ्ठी गरम करने को तैयार रहती है   तभी तो.. एसे लोगों को सुविधायें दे देनी चाहिए- सरकारी खजाने में सेंधमारी खुद ब खुद कम हो जायेगी

Friday, 11 May 2012

गूलर के फूल..

लंच के बाद ऑफिस की बिल्डिंग के बाहर खुली हवा में एक- दो चक्कर लगाने की आदत सी हो गयी है। कैम्पस के चारों तरफ काफी पेड़ भी हैं। आज अचानक एक पेड़ के नीचे टपके फलों को देखकर कदम ठिठक गए और बचपन याद हो आया।

बचपन में गर्मियों की छुट्टियों में प्रायः गाँव जाया करते थे। पोखर के पास ये बड़ा पीपल का पेड़ और आस-पास खूब सारे नीम और गूलर के पेड़ !! टीकाटीक दोपहरिया में वहाँ से हटने का जी ही नहीं करता था। उससे ज्यादा ठंडी हवा गाँव में और कहीं नसीब ही कहाँ थी? चारों तरफ जमीन पर बिखरे होते थे नीम की पकी हुयी निबौरियाँ और गूलर के फल....  और हवा में बिखरी होती थी उनकी खुशबू   सुर्ख लाल और पक कर टपके हुए गूलर के मुलायम फलों को जब दो टुकडों में चीरा जाता था तो उनमें से बीसियों छोटे-छोटे मच्छर जैसे कीड़े उड़ भागते थे। इन कीडों को उनकी इस प्राकृतिक कैद से रिहाई कराने में मजा भी बहुत आता था। जो बच गए उन्हें फूँक मार कर उड़ा दिया और मीठा गूलर सीधा मुँह के अन्दर!!! उस समय सोचते थे कि इस फल में कहीं कोई छेद नहीं, कहीं से कटा नहीं, फटा नहीं, तो आखिर इसमें इतने सारे कीड़े घुस कैसे गए ??   


गूलर यानी फिग (Fig) जिसे बहुत से लोग अंजीर के नाम से भी जानते हैं, मई जून के गर्म मौसम में फलता है। मूल रूप से अरब देशों से आई यह प्रजाति भारत के गर्म हिस्सों में पायी जाती है।  बड़ा ही विचित्र सम्बन्ध होता है वनस्पतियों और प्राणियों में । गूलर और इन कीडों (Fig Wasp) में तो यह और भी अद्भुत है  अगर एक नहीं तो दूसरा भी नहीं 

पराग कणों (pollen grains) से लदी हुयी मादा fig wasp अंडे देने के लिए गूलर के फूल में प्रवेश करती है और अंडे देने के तुरंत बाद मर जाती है  उसके द्वारा लाये गए पराग कणों से फूल निषेचित हो जाता है और नए बीज का निर्माण शुरू हो जाता है  इसके साथ उस फल के कुछ galls में wasp के लार्वा भी पनपने लगते हैं  सबसे पहले नर लार्वा विकसित होते हैं जो कि फल के अन्दर ही मादा को fertilize कर देते हैं  गूलर के फल के पक जाने पर नर wasp अपनी साथी को फल से बाहर निकलने का रास्ता बनाने के लिए एक सुरंग खोदना शुरू कर देता है  नर wasp जिसके पर नहीं होते बाहर आकर मर जाता है  मादा उस सुरंग  के रास्ते बहार आकर उड़ जाती है - अंडे देने के लिए किसी और फूल की तलाश में... जाते जाते मादा अपने साथ उस फल से पराग (pollen) साथ ले जाती है जिससे नए गूलर के बीज का भी निर्माण हो सके ।  अगर मादा बिना पराग लिए कहीं अपने अंडे दे देती है तो गूलर का पेड़ उस unfertilized फल को त्याग देता है और उसमें पल रहे लार्वा मर जाते हैं  है ना अद्भुत संगम जूलोजी और बौटानी का... !!!!


Wednesday, 14 March 2012

यः प्रीणयेत सुचरितै: पितरं स पुत्रो...


इस बार होली के बाद ही अपने घर जा सका घर ज्यादा दूर नहीं है कुल मिला के दिल्ली के अपने घर से पैतृक घर तक का रास्ता ठीक १४० किमी. है। सुबह- सुबह ही पहुँच गया था। माँ आँगन में बैठी सूप हाथों में लिए गेहूँ फटक रही थी। देखते ही मुस्करा कर खड़े होते हुए बोली- "आ गए बेटा"। मैं देख रहा था कि अब उनको  एकदम से उठने में भी दिक्कत होने लगी है। हाथ से अपने घुटनों को दबाते हुए, चेहरे पर दर्द के भावों को अपनी चिर परचित मुस्कराहट के पीछे छुपाती हुयी धीरे-धीरे खड़ी हो पायीं। उनको इस उम्र में इस तरह के भारी काम करते देख कर मेरा चित्त एक विचित्र वेदना से भर जाता है। यह जानते हुए कि हम चाहे कितना भी रोकें ये इस तरह के कामों को बंद नहीं करेंगी, चरणश्पर्श के बाद मैंने धीरे से कहा- "ये सब क्या करती रहती हो?"  मुस्कारते हुए बोलीं- "देख.. चना, सोयाबीन वगैरा मिक्स किया है.. अभी तेरे डैडी को भेजती हूँ चक्की पर.. पिसवा लायेंगे... आधा तुम ले जाना आधा भाई ले जाएगा।" बाहर जाकर डैडीजी को आवाज दी- "अरे कहाँ गए.. सुनते हो.. गाड़ी निकाल लो... गेहूँ तैयार हैं।" फिर वापस अन्दर आकर बोलीं- "कुछ खाया?... चाय बनवाऊँ या सीधे खाना ही खाओगे... हाँ तेरे लिए चंदियाँ और अनस्से बना के रक्खे हैं... जा.. जाके रसोई से ले आ।" 

होली पर गुजिया तो हर घर में बनतीं है, हमारी तरफ कहीं-कहीं अनस्से भी बनाए जाते हैं, चंदियाँ केवल अपनी नानी के घर में और अपने ही घर में मैंने देखी हैं। गजब स्वाद होता है इन दोनों का। मुझे बहुत पसंद है एक बार ख़त्म हो जायें तो अगले साल की होली का इन्तजार करता हूँ। खूब मेहनत लगती है इनको बनाने में। झंझट भी बहुत करने पड़ते है। सामग्रियों का अनुपात, विधि या कढ़ाई में तेल का तापमान ज़रा भी बदला नहीं कि सब छित्तर..। ओखली में थोड़ी देर पहले भिगोये हुए चावलों को कूटते-कूटते भुजाओं में दर्द हो आता है... लेकिन क्योंकि मुझे पसंद है इसलिए हर साल बनाती हैं। इधर कुछ दिनों से मेरा गला खराब चल रहा था। इसलिए पत्नी के बनाए हुए दही-बड़े बस चखे भर थे... लेकिन माँ के हाथ की बनी हुयी, हींग-जीरे के तड़के वाले खूब खट्टे रायते में डूबी हुयी चंदियाँ... अपने आपको कैसे रोकूँ.. छक के खायीं। 

अभी ढ़ाई महीना हुआ डैडीजी को सेवानिवृत हुए। कानपुर से रिटायर हुए थे। फेयरवेल पार्टी में हम दौनों भाईयों को भी बुलाया गया। खूब सारी बातें की गयीं डैडीजी के बारे में... माहौल थोड़ा सेंटीमेंटल हो लिया था। नौकरी के साथ-साथ काफ़ी इज्जत कमाई है डैडी जी ने

सोचता था हर महीने घर जाया करूँगा... पर देखो त्यौहार पर भी नहीं जा पाया। होली के अगले दिन बेटे का पेपर था। "कोई बात नहीं बेटा, फुर्सत से आ जाना" - फोन पर डैडी जी की मायूसी साफ़ महसूस हुयी
माँ-बाप के बारे में लिखना कितना मुश्किल होता है.. आज लिखने बैठा तो समझ आ रहा है... बार-बार जी भर आता है.. !!!