आजकल मुस्लिम आरक्षण बिल पर काफी चर्चा हो रही है... टीवी पर राजनेताओं और धर्मिक संगठनों के नेतागण लगे हुए थे पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ कर सांप्रदायिक माहौल तैयार करने में। उनके बीच जारी बहस को सुनते-सुनते दो पुरानी घटनायें याद आ गयीं--
पहली:
गुजरात दंगे हुए तकरीबन कुछ महीने ही बीते थे। पुरानी दिल्ली स्टेशन पर एक हिन्दू औरत अपने जवान बेटे के साथ बैठी थी। और उसी बैंच पर दूसरे कौने पर एक मुसलमान औरत। थोड़ी देर के बाद उनमें बातचीत का सिलसिला चल पड़ा-
"अजमेर जा रही हो?" पान चबाते हुए मुस्लिम औरत ने पूछा।
"हाँ लेकिन पुष्कर जाना है... ब्रह्मा जी के मंदिर में मेला लगा है ना.. "
"हूँ... अजमेर शरीफ दरगाह भी जायेंगी?"
"नहीं.."
"अरे जब इतना दूर जा रहीं हैं तो आपको वहाँ भी जाना चाहिए.. "
तभी हिन्दू लड़का भी इस बातचीत में कूद गया - "आप पुष्कर चलेंगी हमारे साथ?"
"कतई नहीं... बुतपरस्ती हराम है हमारी कौम में" मुस्लिम औरत ने जोरदार तरीके से कहा।
"तो हम क्यों जायें किसी मजार पे?" लड़का कड़वाहट लिए रूखेपन से बोला।
"बहन, आपका लड़का तो निहायती बद्तमीज़ है.. एसे लोगों की वजह से ही साम्प्रदायिकता बढ़ रही है। मैंने तो इसलिए कहा था कि दरगाह पे सारी कौमें- मुसलाम, हिन्दू सालों से जा रहे है"
"ठीक कह रही हो बहन, इस मुल्क में साम्प्रयिक सद्भावना का ठेका हिन्दुऔ ने ही ले रखा है ना.." हिन्दू औरत ने धीरे से जबाब दिया..
ये नेता लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किस तरह सांप्रदायिक ताकतों का इस्तेमाल करते हैं और लोगों के दिलो-दिमाग में दूसरे धर्म के प्रति द्वेष पैदा कर देते हैं, ये उसका एक उदाहरण मात्र है। भले ही यह कड़वाहट कुछ समय ही रहती है और बाद में सब कुछ सामान्य होने पर लोग भाई चारे के साथ रहने भी लगते हैं। परन्तु युवा और किशोर मस्तिष्क पर इसका नकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है।
दूसरी घटना थोड़ी और पुरानी है। १९९५ के अलीगढ दंगों के कुछ समय बाद एक दिन मैं अलीगढ में तस्वीर-महल सिनेमा की तरफ से सासनी गेट की तरफ रिक्शे से आ रहा था। समद रोड पर एक लड़की ने रिक्शा रुकवाया। उसको मेरे रास्ते में ही आगे कहीं जाना था तो रिक्शे वाले ने मुझसे पूछा- "बैठा लूँ क्या?" अलीगढ में ये आम बात है.. एक ही दिशा में जाने वाली अगर दो सवारी मिल जातीं हैं तो रिक्शे वाले पहली सवारी से पूछ कर बैठा लेते हैं। इससे उनको अतिरिक्त आमंदनी भी हो जाती है। लड़की मॉडर्न लग रही थी। उन दिनों छोटे शहरों में जींस पहनने वाली लडकियाँ मॉडर्न ही मानी जाती थीं। मैं किशोरावस्था में था तो मुझे क्या आपत्ति होनी थी। मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। थोडा आगे जाने पर सामने से स्कूटर पर आते हुए एक व्यक्ति ने लड़की से पूछा- "ज़ोया, कहाँ जा रही है?" लड़की ने जबाब दिया "खालू के घर.." बस ये सुनते ही जैसे झटका सा लगा। मैं उस छोटे से रिक्शे में जितना दूर जा सकता था खिसक गया। जिसका साथ अभी तक सुखद लग रहा था वो अब अचानक से 'मुसलमान' हो गयी...