Friday 23 December 2011

..और वो मुसलमान हो गयी


आजकल मुस्लिम आरक्षण बिल पर काफी चर्चा हो रही है... टीवी पर राजनेताओं और धर्मिक संगठनों के नेतागण लगे हुए थे पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ कर सांप्रदायिक माहौल तैयार करने में उनके बीच जारी बहस को सुनते-सुनते दो पुरानी घटनायें याद आ गयीं-- 
पहली:
गुजरात दंगे हुए तकरीबन कुछ महीने ही बीते थे पुरानी दिल्ली स्टेशन पर एक हिन्दू औरत अपने जवान बेटे के साथ बैठी थी और उसी बैंच पर दूसरे कौने पर एक मुसलमान औरत थोड़ी देर के बाद उनमें बातचीत का सिलसिला चल पड़ा- 
"अजमेर जा रही हो?" पान चबाते हुए मुस्लिम औरत ने पूछा 
"हाँ लेकिन पुष्कर जाना है...  ब्रह्मा जी के मंदिर में मेला लगा है ना.. "
"हूँ...  अजमेर शरीफ दरगाह भी जायेंगी?"
"नहीं.."
"अरे जब इतना दूर जा रहीं हैं तो आपको वहाँ भी जाना चाहिए.. "
तभी हिन्दू लड़का भी इस बातचीत में कूद गया - "आप पुष्कर चलेंगी हमारे साथ?"
"कतई नहीं... बुतपरस्ती हराम है हमारी कौम में" मुस्लिम औरत ने जोरदार तरीके से कहा
"तो हम क्यों जायें किसी मजार पे?" लड़का कड़वाहट लिए रूखेपन से बोला
"बहन, आपका लड़का तो निहायती बद्तमीज़ है.. एसे लोगों की वजह से ही साम्प्रदायिकता बढ़ रही है मैंने तो इसलिए कहा था कि दरगाह पे सारी कौमें- मुसलाम, हिन्दू सालों से जा रहे है"
"ठीक कह रही हो बहन, इस मुल्क में साम्प्रयिक सद्भावना का ठेका हिन्दुऔ ने ही ले रखा है ना.." हिन्दू औरत ने धीरे से जबाब दिया..


ये नेता लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किस तरह सांप्रदायिक ताकतों का इस्तेमाल करते हैं और लोगों के दिलो-दिमाग में दूसरे धर्म के प्रति द्वेष पैदा कर देते हैं, ये उसका एक उदाहरण मात्र है  भले ही यह कड़वाहट कुछ समय ही रहती है और बाद में सब कुछ सामान्य होने पर लोग भाई चारे के साथ रहने भी लगते हैं परन्तु युवा और किशोर मस्तिष्क पर इसका नकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है
 

दूसरी घटना थोड़ी और पुरानी है १९९५ के अलीगढ दंगों के कुछ समय बाद एक दिन मैं अलीगढ में तस्वीर-महल सिनेमा की तरफ से सासनी गेट की तरफ रिक्शे से आ रहा था समद रोड पर एक लड़की ने रिक्शा रुकवाया उसको मेरे रास्ते में ही आगे कहीं जाना था तो रिक्शे वाले ने मुझसे पूछा- "बैठा लूँ क्या?"  अलीगढ में ये आम बात है.. एक ही दिशा में जाने वाली अगर दो सवारी मिल जातीं हैं तो रिक्शे वाले पहली सवारी से पूछ कर बैठा लेते हैं इससे उनको अतिरिक्त आमंदनी भी हो जाती है लड़की मॉडर्न लग रही थी उन दिनों छोटे शहरों में जींस पहनने वाली लडकियाँ मॉडर्न ही मानी जाती थीं मैं किशोरावस्था में था तो मुझे क्या आपत्ति होनी थी मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी थोडा आगे जाने पर सामने से स्कूटर पर आते हुए एक व्यक्ति ने लड़की से पूछा- "ज़ोया, कहाँ जा रही है?" लड़की ने जबाब दिया "खालू के घर.."   बस ये सुनते ही जैसे झटका सा लगा मैं उस छोटे से रिक्शे में जितना दूर जा सकता था खिसक गया जिसका साथ अभी तक सुखद लग रहा था वो अब अचानक से 'मुसलमान' हो गयी...

Wednesday 7 December 2011

विलुप्त होतीं नातेदारियाँ


बचपन में हम लोग विविध भारती का सतरंगी कार्यक्रम और बिनाका गीतमाला सुनते हुए बड़े हुए। आज ठीक उसी उम्र के हमारे बच्चों के पास बीसियों टीवी चैनल्स, इन्टरनेट गेम्स, एक्स-बॉक्स-360 जैसे कई विकल्प मौजूद हैं। उन दिनों गर्मियों की छुट्टी में नाना-नानी, दादा-दादी के घर पर तमाम रिश्तेदारियों का मजमा लग जाया करता था। परन्तु  आज-कल संयुक्त परिवार घटते जा रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण और उत्तर आधुनिकता ने जीवन में अनेक आवश्यक-अनावश्यक लालसाएं भर दी हैं। जिन्दगी एक दौड़ बन गयी है, जिसकी मंजिल दूर खिसकती जा रही है। बेशक, महानगरीय मध्य वर्ग का जीवन स्तर सुधरा है, पर उसे उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है।

पहले चाचा-ताऊ, मामा-मौसी, भाई-भतीजे, चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों जैसे रिश्तों का अंबार रहता था। परन्तु फैमिली प्लानिंग के इस युग में रिश्ते भी लिमिटेड ऑप्शन के साथ मिलने लगे हैं। जैसे- भाई या बहन में कोई एक, आगे चल कर भाभी या बहनोई में कोई एक, देवर या ननद में कोई एक। परिणाम स्वरुप अगली पीढ़ी में चाचा ताऊ और बुआ में कोई एक, चाची ताई फूफा में कोई एक, मामा मौसी में कोई एक, मामी मौसा में कोई एक। इसी प्रकार चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई बहनों, भतीजों- भांजों की तादाद भी काफी कम हो रही है।

अब समय एसा आ गया है कि ज्यादातर दम्पतियों के घर एक ही बालक/बालिका  है। अगर एसा चला तो अगली पीढ़ी में उसकी नातेदारी तो बिलकुल ख़त्म। ना भाई, ना बहन, ना बहनोई, ना भाभी, ना चाचा-चाची, ना ताऊ-ताई, ना मामा-मामी, ना बुआ-फूफा, ना मौसा-मौसी। फिर कजंस, नैफ्यु, नीस जैसे रिश्तों की तो बात ही छोड़ दो।  

बात थोड़ी कड़वी है। पर है सच। है ना..  

Wednesday 12 October 2011

शहंशाह या खुदा !!


इस वीकएंड पर आगरा जाने का प्रोग्राम बस अचानक से ही बन गया  बचपन से अब तक कई दफा देखे हुए बेहद भव्य ताज महल और आगरा किला आज भी मन को उद्वेलित कर देते हैं..  पता नहीं इस अजूबे के निर्माण के पीछे की असल वजह क्या है -  एक गमज़दा शौहर की अपनी महबूबा के लिये बेपनाह मोहब्बत या एक सनकी शहंशाह की खुद को कायनात की बुलंदियों पर दिखने की ठरक। उस समय की गरीब रियाया के ऊपर जजिया और ना जाने कौन -कौन से टैक्स लगा कर जमा की गयी बेशुमार दौलत के दम पर, मुमताज की मौत के एक साल बाद शाहजहां ने ताज बनवाना शुरु किया और पूरे 22 साल बाद हिन्दुस्तान के ताज में एक बेशकीमती नगीना जड़ दिया। 

दूसरा पहलू है ताज का नक्शा, जो हूबहू ‘‘कयामत के दिन‘‘ के नक्शे से मेल खाता है, चारों तरफ बाग-बगीचे और बीच में रखा खुदा का सिंहासन, फिर फव्वारों की एक लंबी कतार, और सिंहासन के ठीक सामने एक बड़ा सा चबूतरा जहां कयामत के दिन लोगों का हूजूम जमा होगा और खुदा अपने बंदों का फैसला करेंगे। इस्लामिक दीन के हिसाब से खुदा की नगरी और उसका नज़ारा बेहद खूबसूरत है, चारों ओर बाग-बगीचे और हरियाली है, और ऐसा इसलिये है क्यूकि उर्दू में घास और जन्नत के लिये एक ही शब्द प्रयोग होता है। शायद यही वजह है कि तकरीबन सभी इस्लामिक इमारतें बगीचे के बीचेंबीच बनाई जाती थीं। पर किसी भी इमारत का नक्शा हूबहू जन्नत के नक्शे से मेल नहीं खाता, सिवाय ताज महल के।

शाहजहां को ये नक्शा अपने परदादा बाबर के वक्त लिखी गई एक किताब से हासिल हुआ, और शायद तभी उसने जन्नत को जमीन पर उतारने का मन बना लिया। नक्शे में जहाँ खुदा का सिंहासन है वहा ताज महल खड़ा है और उसमें बादशाह और उनकी बेगम की कब्र है। शाहजहाँ ने खुद को खुदा के स्थान पर रखा, मानो वो ये बताना चाहता हो कि मैं खुदा का दूत नहीं बल्कि खुदा ही हूँ   इस बात का सबूत दो जगह पर मिलता है, पहला है ताज परिसर के मुख्य द्वार पर लिखा सूरा (इस्लामिक इमारतों पर चित्र बनाने की मनाही है, र्सिफ फूल-पत्तियां और कुरान की आयातें ही लिखी जा सकती हैं) जिसका अर्थ है- ‘‘खुदा की नगरी में आपका स्वागत है‘‘ और दूसरा ताज के मुख्यद्वार पर लिखा सूरा ‘‘आओ मेरी पनाह में आ जाओ''। पूरी कुरान में ये एक ही सूरा ऐसा है जहां खुदा खुद अपने बंदों से सीधे तौर पर बात कर रहें हैं, ऐसा किसी और इमारत में देखने को नहीं मिलता। खुद को खुदा साबित करने का जुनून तो कई मुगलिया शासकों में था, पर शाहजहां ने अपने जुनून को अंजाम तक पहुंचाया और जन्नत को जमीन पर उतार लाया।

ये सब जानने के बाद भी मेरे लिये ताज महल एक बेपनाह मोहब्बत की निशानी ही है, क्योंकि इसी ताज के साये में मैंने ये चंद पंक्तियां सुनी थीं - 

एक शहंशाह ने बना के हसीँ ताज महल, 
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक !!

Friday 19 August 2011

सरकारी मतलब घटिया.. ??


पिछले कुछ दिनों से अपने ऑफिस के काम से केंद्र सरकार के एक दफ्तर के चक्कर लगा रहा हूँ I  कहने को तो में भी इस सरकारी कर्मचारी वाली जमात में शामिल हूँ  और इस नाते सामने वाले की मजबूरियाँ समझता हूँ  लेकिन फिर भी सरकारी अफसरों के काम करने के तरीके पर खीज होती है I  गैरजिम्मेदारी, लीपा-पोती, काम दूसरों पे टालना तो अब आदत हो गयी है I लगभग हर सरकारी दफ्तर का यही हाल है I 
 
अब सरकारी स्कूलों, अस्पतालों का ही हाल देख लो I अब सरकारी स्कूलों में किसी अफसर, नेता, व्यापारी, उध्योगपति, डॉक्टर और ऐसे ही किसी ऐसे व्यक्ति के बच्चे नहीं पढ़ते जो उच्च या माध्यम वर्ग में आते हैं I  जो महंगे निजी स्कूल में नहीं जा सकते वो किसी सस्ते निजी स्कूल में जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल में... ना बाबा ना I 

ठीक इसी तरह इस वर्ग के लोग सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए नहीं जाते I एम्स और पीजीआई जैसे कुछ अपवाद हैं लेकिन वहाँ भी वो तब जाते हैं जब कोई और विकल्प ना बचा हो I  वो सरकारी बसों में चढ़ना पसंद नहीं करते, सरकारी डाक व्यवस्था के इस्तेमाल को भरसक टालते हैं I  वो सरकारी कम्पनियों के उत्पाद नहीं खरीदते I  टेलीफोन, मोबाईल जैसी सुविधाओं के लिए भी सरकारी कि जगह निजी कंपनी को तरजीह देते है I  सरकारी के नाम पर वे रेल और सड़क जैसी गिनी चुनी चीजों का ही इस्तेमाल करते हैं .. मजबूरी में क्योंकि उनका कोई विकल्प नहीं है I

एसा महसूस किया जा सकता है कि संपन्न वर्ग को तो छोड़ ही दो अब माध्यम वर्गीय भी हर उस सुविधा के इस्तेमाल को अपनी तौहीन समझने लगे हैं जो सरकारी है I  हालात इतने खराब हैं कि यदि कोई व्यक्ति पैसे खर्च करने में ज़रा सा भी सक्षम है तो वह सरकारी राशन की दुकान से सस्ते में मिलने वाला गेहूं , चावल नहीं खरीदता I  और तो और सरकारी चिकित्सालयों में मुफ्त में मिलने वाले कंडोम पर भी भरोसा नहीं करता I

वैसे तो ये सरकार के लिए चिंता की बात होनी चाहिए लेकिन सरकार चलाने वाले राजनेता और अधिकारी दोनों ही निश्चिन्त और संतुष्ट दीखते हैं I  न्यायालयों को भी इस बात पर चिंता जाहिर करते नहीं देखा कि सरकारी स्कूल, अस्पताल, रोडवेज, दूरसंचार आदि इतने बदहाल क्यों हैं I 

कुछ दशक पहले तक स्तिथि इतनी खराब नहीं थी I  बात कीजिये राजनेताओं और अधिकारियों से, इनमें से अधिकाँश ने किसी सरकारी अस्पताल में जन्म लिया होगा, किसी सरकारी स्कूल में पढ़ाई की होगी लेकिन आज वे अपने बच्चों के साथ कदापि एसा नहीं करेंगे I

ये आजादी के बाद पाँचवें और छठवें दशक में सरकारी व्यवस्था में हुए पतन का सबूत है I  ये सरकारी प्रश्रय में निजी व्यवसाय के पनपने का भी सबूत है I ये सरकारी विभागों में सर्व-व्याप्त भ्रष्टाचार का भी सबूत है I और ये नेहरु के समाजवादी भारत का मनमोहन सिंह के पूँजीवादी भारत में तब्दील हो जाने का सत्य भी है I

हमने अपनी आंखों से देखा है कि सरकारी अमला किस तरह से एक सरकारी व्यवस्था को धीरे-धीरे इसलिए खराब करता है ताकि उसके बरक्स प्राइवेट बेहतर दिखने लगे और सरकारी व्यवस्था दम तोड़ दे या फिर उसका निजीकरण किया जा सके I   

आज एक सिविल सोसायटी एसे भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है I पहले भी इस तरह की सिविल सोसाइटियों ने आन्दोलन कर के कानून में परिवर्तन कराये हैं I आरटीआई, रोजगार गारंटी योजना, नर्मदा बचाओ आन्दोलन इसके उदाहरण हैं I परन्तु क्या क़ानून बनाने मात्र से राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों  और कर्मचारियों की कार्य क्षमता बढ़ सकती है?  परस्थितियाँ उस दिन बदलेंगी जब वे लोग आत्म चिंतन कर अपने कार्य के प्रति समर्पित होंगे I

यह समय है जब हम भ्रष्टाचार जैसी व्यापक समस्या के बारे में या अन्ना हजारे के आन्दोलन के बारे में बात करते समय ये भी सोचें कि जो कुछ भी सरकारी है वह धीरे-धीरे निकृष्ट क्यों होता जा रहा है.. सिवाय सरकारी नौकरी के I  और ये भी सोचें कि एक बार सरकारी नौकरी में आने के बाद क्यों निकृष्ट हो जाते हैं हम लोग !!!

Wednesday 22 June 2011

पुरानी सभ्यता के डूबते हुए टापू...

दिल्ली में आप नई उम्र के बच्चों को अक्सर ये कहते सुन सकते हैं कि 'अंकल डेढ़ कितना होता है' या फिर 'अंकल सैंतालीस मीन्स फोर्टी सेवन ना ?' लेकिन यमुना पार करके भट्टा-परसौल और आगे निकलें तो पायेंगे कि देहातों की अपनी बोली-बानी अभी ज़िंदा है I वहाँ अब भी कोस-कोस पर पानी बदला हुआ होता है और चार कोस पर बानी बदल जाती है I

NH-2 पर फरीदाबाद से आगे जा कर पलवल से बाईं ओर एक रोड जाता है I इस पर यमुना क्रॉस करते ही अलीगढ जिला लग जाता है I थोडा और आगे जाने पर आते हैं - पीपली, हामिदपुर, टप्पल और जट्टारी I ये वो इलाका है जहाँ से 165 किमी. लम्बा 'कुख्यात' यमुना एक्सप्रेस वे निकलता है I कई सालों से मैं इस रोड से आ-जा रहा हूँ I करीब 10-12 साल पहले तक दिन छिपने के बाद ये इलाका एकदम सुनसान हो जाता था और इस रोड से गुजरना एक दुस्साहस करना होता था I पिछले 6-7 साल से यह रोड भी दुरुस्त कर दिया गया और हालात भी थोड़े बेहतर हो गए हैं I हामिदपुर तिराहा जो पहले निर्जन- निर्जीव सा दिखता था अब जीवंत होने लगा है I करीब चार - पाँच साल से यहाँ एक चाय वाला बैठने लगा है I शुरुआत में उसके पास एक तख़्त और दो बेंच थीं I उसका धंधा बढ़ता गया और आज वहाँ एक खोखा है, टिन शेड है, कोल्ड ड्रिंक्स के लिए फ्रिज है और दो तीन चारपाइयाँ भी हैं - चाहो तो आराम से लेट कर थकान उतार लो I इस रूट पर दिल्ली से अलीगढ तक यहाँ से बेहतरीन चाय आपको कहीं नहीं मिलेगी I  अब तो आदत सी हो गयी है आते और जाते समय यहाँ रुकने की I

भट्टा-पारसौल काण्ड के बाद पहली बार इस वीकएंड पर घर जाना हुआ I यमुना ऐक्सप्रेस वे पर काम काफी जोर शोर से चल रहा है I इसके साथ ही इस इलाके में थोड़ी सुगबुगाहट दिखती है I चाय की दुकान के आस-पास कुछ लोग बैठे हैं I हुक्के की गुडगुडाहट के बीच सामाजिक ताना-बाना यहाँ जीवित है I जून की तपती दोपहरी में गर्मागरम चाय मन को सुकून दे रही है I बेटा कार से निकलते  ही मक्का के खेत में घुस गया है I हामिदपुर तिराहा जैसे तीन अलग- अलग संस्कृतियों से आने वालों का संगम है - पलवल की तरफ से गूजर, ग्रेटर नॉएडा की तरफ से जाट और अलीगढ की तरफ से बृजभाषा-भासी I अड्डेबाजी करते हुए और बाघ-बकरी खेलते हुए कुछ जाट नौजवान शिकायत करते हैं - "भाई, नौकरी तो है ना... और जमीन लै लई जेपी ने... का करेंगे ? सोलह गोटी खेलेंगे और का करेंगे.." I यहाँ से थोड़ी ही दूर ग्रेटर नॉएडा की तरफ उनका गाँव है I यमुना ऐक्सप्रेस वे उनके गाँव से गुजरता है, जिसके दूसरी ओर जेपी एसोसिएट्स कंपनी फार्मूला-वन रेस-ट्रैक बना रही है I गाँव के तमाम किसानों की यमुना की तराई वाली उपजाऊ जमीनें इस 'विकास' को समर्पित हो गयीं हैं I 

विकराल राज्य मशीनरी से किसानों की टक्कर अभी भी जारी है I पिछले साल टप्पल में गोली चली, ये रास्ता कई दिनों तक जाम कर दिया गया, और इस साल मई में भट्टा-पारसौल में कई लोग मारे गए I आगे के गावों के किसानों भी शिकायत वही है- 'सरकारी धोखाधड़ी और जोर-जबरदस्ती' I किसानों के दुःख और गुस्से का एक ही रंग है- स्याह; पर बोलियाँ अलग -अलग I यहीं कुछ और लोगों से बातचीत में तन्नै-मन्ने की जगह बृजभाषा की मीठी तोए-मोए घुल जाती है - "मोए का पतो कि हमार धत्ती क्यों ले रइयै जे मायावती, जबरदस्ती धारा लगाय दई, हमै पतो नाय चलो, हमते को पूछ रओ है " I

मुझे ये किसान समाज एक युगांतर पर खड़ा नजर आता है I उसके एक ओर उसका गाँव है, खेत हैं, गोशाला है, मंदिर है, चौपाल है,  सामाजिक बंधन हैं तो दूसरी ओर आलीशान हाई-वे है, कार रेस ट्रैक है, शॉपिंग माल्स, स्टेडियम, चमकदार आई-टी हब, मल्टीप्लैक्सेस, गोल्फ कोर्स और लक्जरी हाउसिंग है I समुद्र में उठते ज्वार की तरह नए जमाने की ये सुविधायें गाँवों को चारों ओर से घेरती जा रही हैं I गाँव अब पुरानी देसी सभ्यता के टापू जैसे रह गए हैं I धीरे-धीरे डूबते टापू.. I 

आखिर विकास की कीमत इस महान देश में गरीब ही तो चुकाते हैं.. तो कौन जाने, हो सकता है कुछ एक साल बाद इस चाय वाले को इस मेन तिराहे से भगा दिया जाएगा और यहाँ भी कोई मॉल खुल जाएगा...  एक ही जैसी हिंदी, इंगलिश बोलने वाले और पूँजीवादी सोच रखने वाले पढ़े-लिखे शहरी लोग यहाँ आ कर बस जायेंगे...  और एक दिन यहाँ भी बच्चे पूछेंगे कि अंकल डेढ़ कितना होता है ???

Tuesday 26 April 2011

First Day, First Show !!

कुछ चीजें आनुवंशिक होती हैं..  ऐसा ही सिनेमा का शौक मुझे अपने पेरेंट्स से विरासत में मिला है.. बचपन में वो अक्सर हमको मूवी दिखने ले जाते थे...  बड़े होने पर हम खुद ही दोस्तों के साथ जाने लगे... अब यही शौक बेटे और पत्नी को भी लग गया है..  अभी भी जब हम लोग घर जाते हैं, डैडी जी अक्सर फिल्म का प्रोग्राम बना लेते हैं..

कालेज टाइम में एक क्रेज था.. "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो" देखने का..  सबसे पहली बार "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो" दोस्तों के साथ देखने गया -- फिल्म थी - "सड़क" . काफी मारा-मारी के बाद टिकट्स तो ले लिए, लेकिन जब अन्दर घुसने लगे तो गेट कीपर ने रोक लिया -- "पिक्चर एडल्ट है !!" ... बस मायूस हो के साइकल स्टैंड पर खड़े हो गए .. फिर २० -२२ रुपये की टिकट 35 रुपये में बेच दी.. मुझे अभी तक याद है उन एक्स्ट्रा पैसों से कैम्पा कोला और पेस्ट्री की पार्टी में जो मजा आया वो शायद पिक्चर देखने में नहीं आता... एक और मजेदार वाकया नहीं भूलता.. इस बार टिकट्स लेने में ही शर्ट फट गयी थी.. पुलिस ने लाठियां भी बजायीं थीं... मूवी थी - "राजा बाबू" .     और एक बार तो कुछ को छोड़ के सारी की सारी क्लास बंक मार के सिनेमा पहुँच गयी .. मूवी थी- "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे".

अब ये सब याद आ रहा है क्यों कि अभी तीन दिन पहले ही सुबह ही सुबह न्यूज पेपर देख कर बेटे ने पिक्चर देखने की फरमाइश कर दी.  फ्राईडे का दिन और गुड-फ्राईडे की छुट्टी भी, तो एकदम से दिमाग में आया कि चलो आज देखा जाए "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो".   तुरंत पत्नी जी पर हुक्म बजा दिया कि लंच छोड़ो ब्रेक-फास्ट हैवी कराओ.. बस सुबह १० बजे तक पहुँच गए पीवीआर साकेत... पिक्चर थी बेटे की फरमाइश वाली - "Zokkomon".   टिकट्स ले कर ऊपर पहुंचे तो देखा एकदम सन्नाटा.. ऑडिटोरियम के बहार बस एक दो पीवीआर के स्टाफ के लोग ही थे..   ऑडिटोरियम मैं भी हम तीनों के अलावा कोई भी नहीं... पिक्चर शुरू हो गयी... और बेटे की मस्ती भी ... उसने तो सारे हाल में घूम-घूम के पिक्चर देखी... लग रहा था की स्पेशल स्क्रीनिंग हो रही है हमारे लिए.. और अंदाज कुछ इस कदर कि इंटरवल में एक लड़की आयी और बोली- "सर, कुछ लेंगे.. पोपकोर्न - पेप्सी वगैरा... "