Wednesday, 22 June 2011

पुरानी सभ्यता के डूबते हुए टापू...

दिल्ली में आप नई उम्र के बच्चों को अक्सर ये कहते सुन सकते हैं कि 'अंकल डेढ़ कितना होता है' या फिर 'अंकल सैंतालीस मीन्स फोर्टी सेवन ना ?' लेकिन यमुना पार करके भट्टा-परसौल और आगे निकलें तो पायेंगे कि देहातों की अपनी बोली-बानी अभी ज़िंदा है I वहाँ अब भी कोस-कोस पर पानी बदला हुआ होता है और चार कोस पर बानी बदल जाती है I

NH-2 पर फरीदाबाद से आगे जा कर पलवल से बाईं ओर एक रोड जाता है I इस पर यमुना क्रॉस करते ही अलीगढ जिला लग जाता है I थोडा और आगे जाने पर आते हैं - पीपली, हामिदपुर, टप्पल और जट्टारी I ये वो इलाका है जहाँ से 165 किमी. लम्बा 'कुख्यात' यमुना एक्सप्रेस वे निकलता है I कई सालों से मैं इस रोड से आ-जा रहा हूँ I करीब 10-12 साल पहले तक दिन छिपने के बाद ये इलाका एकदम सुनसान हो जाता था और इस रोड से गुजरना एक दुस्साहस करना होता था I पिछले 6-7 साल से यह रोड भी दुरुस्त कर दिया गया और हालात भी थोड़े बेहतर हो गए हैं I हामिदपुर तिराहा जो पहले निर्जन- निर्जीव सा दिखता था अब जीवंत होने लगा है I करीब चार - पाँच साल से यहाँ एक चाय वाला बैठने लगा है I शुरुआत में उसके पास एक तख़्त और दो बेंच थीं I उसका धंधा बढ़ता गया और आज वहाँ एक खोखा है, टिन शेड है, कोल्ड ड्रिंक्स के लिए फ्रिज है और दो तीन चारपाइयाँ भी हैं - चाहो तो आराम से लेट कर थकान उतार लो I इस रूट पर दिल्ली से अलीगढ तक यहाँ से बेहतरीन चाय आपको कहीं नहीं मिलेगी I  अब तो आदत सी हो गयी है आते और जाते समय यहाँ रुकने की I

भट्टा-पारसौल काण्ड के बाद पहली बार इस वीकएंड पर घर जाना हुआ I यमुना ऐक्सप्रेस वे पर काम काफी जोर शोर से चल रहा है I इसके साथ ही इस इलाके में थोड़ी सुगबुगाहट दिखती है I चाय की दुकान के आस-पास कुछ लोग बैठे हैं I हुक्के की गुडगुडाहट के बीच सामाजिक ताना-बाना यहाँ जीवित है I जून की तपती दोपहरी में गर्मागरम चाय मन को सुकून दे रही है I बेटा कार से निकलते  ही मक्का के खेत में घुस गया है I हामिदपुर तिराहा जैसे तीन अलग- अलग संस्कृतियों से आने वालों का संगम है - पलवल की तरफ से गूजर, ग्रेटर नॉएडा की तरफ से जाट और अलीगढ की तरफ से बृजभाषा-भासी I अड्डेबाजी करते हुए और बाघ-बकरी खेलते हुए कुछ जाट नौजवान शिकायत करते हैं - "भाई, नौकरी तो है ना... और जमीन लै लई जेपी ने... का करेंगे ? सोलह गोटी खेलेंगे और का करेंगे.." I यहाँ से थोड़ी ही दूर ग्रेटर नॉएडा की तरफ उनका गाँव है I यमुना ऐक्सप्रेस वे उनके गाँव से गुजरता है, जिसके दूसरी ओर जेपी एसोसिएट्स कंपनी फार्मूला-वन रेस-ट्रैक बना रही है I गाँव के तमाम किसानों की यमुना की तराई वाली उपजाऊ जमीनें इस 'विकास' को समर्पित हो गयीं हैं I 

विकराल राज्य मशीनरी से किसानों की टक्कर अभी भी जारी है I पिछले साल टप्पल में गोली चली, ये रास्ता कई दिनों तक जाम कर दिया गया, और इस साल मई में भट्टा-पारसौल में कई लोग मारे गए I आगे के गावों के किसानों भी शिकायत वही है- 'सरकारी धोखाधड़ी और जोर-जबरदस्ती' I किसानों के दुःख और गुस्से का एक ही रंग है- स्याह; पर बोलियाँ अलग -अलग I यहीं कुछ और लोगों से बातचीत में तन्नै-मन्ने की जगह बृजभाषा की मीठी तोए-मोए घुल जाती है - "मोए का पतो कि हमार धत्ती क्यों ले रइयै जे मायावती, जबरदस्ती धारा लगाय दई, हमै पतो नाय चलो, हमते को पूछ रओ है " I

मुझे ये किसान समाज एक युगांतर पर खड़ा नजर आता है I उसके एक ओर उसका गाँव है, खेत हैं, गोशाला है, मंदिर है, चौपाल है,  सामाजिक बंधन हैं तो दूसरी ओर आलीशान हाई-वे है, कार रेस ट्रैक है, शॉपिंग माल्स, स्टेडियम, चमकदार आई-टी हब, मल्टीप्लैक्सेस, गोल्फ कोर्स और लक्जरी हाउसिंग है I समुद्र में उठते ज्वार की तरह नए जमाने की ये सुविधायें गाँवों को चारों ओर से घेरती जा रही हैं I गाँव अब पुरानी देसी सभ्यता के टापू जैसे रह गए हैं I धीरे-धीरे डूबते टापू.. I 

आखिर विकास की कीमत इस महान देश में गरीब ही तो चुकाते हैं.. तो कौन जाने, हो सकता है कुछ एक साल बाद इस चाय वाले को इस मेन तिराहे से भगा दिया जाएगा और यहाँ भी कोई मॉल खुल जाएगा...  एक ही जैसी हिंदी, इंगलिश बोलने वाले और पूँजीवादी सोच रखने वाले पढ़े-लिखे शहरी लोग यहाँ आ कर बस जायेंगे...  और एक दिन यहाँ भी बच्चे पूछेंगे कि अंकल डेढ़ कितना होता है ???

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