Friday, 19 August 2011

सरकारी मतलब घटिया.. ??


पिछले कुछ दिनों से अपने ऑफिस के काम से केंद्र सरकार के एक दफ्तर के चक्कर लगा रहा हूँ I  कहने को तो में भी इस सरकारी कर्मचारी वाली जमात में शामिल हूँ  और इस नाते सामने वाले की मजबूरियाँ समझता हूँ  लेकिन फिर भी सरकारी अफसरों के काम करने के तरीके पर खीज होती है I  गैरजिम्मेदारी, लीपा-पोती, काम दूसरों पे टालना तो अब आदत हो गयी है I लगभग हर सरकारी दफ्तर का यही हाल है I 
 
अब सरकारी स्कूलों, अस्पतालों का ही हाल देख लो I अब सरकारी स्कूलों में किसी अफसर, नेता, व्यापारी, उध्योगपति, डॉक्टर और ऐसे ही किसी ऐसे व्यक्ति के बच्चे नहीं पढ़ते जो उच्च या माध्यम वर्ग में आते हैं I  जो महंगे निजी स्कूल में नहीं जा सकते वो किसी सस्ते निजी स्कूल में जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूल में... ना बाबा ना I 

ठीक इसी तरह इस वर्ग के लोग सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए नहीं जाते I एम्स और पीजीआई जैसे कुछ अपवाद हैं लेकिन वहाँ भी वो तब जाते हैं जब कोई और विकल्प ना बचा हो I  वो सरकारी बसों में चढ़ना पसंद नहीं करते, सरकारी डाक व्यवस्था के इस्तेमाल को भरसक टालते हैं I  वो सरकारी कम्पनियों के उत्पाद नहीं खरीदते I  टेलीफोन, मोबाईल जैसी सुविधाओं के लिए भी सरकारी कि जगह निजी कंपनी को तरजीह देते है I  सरकारी के नाम पर वे रेल और सड़क जैसी गिनी चुनी चीजों का ही इस्तेमाल करते हैं .. मजबूरी में क्योंकि उनका कोई विकल्प नहीं है I

एसा महसूस किया जा सकता है कि संपन्न वर्ग को तो छोड़ ही दो अब माध्यम वर्गीय भी हर उस सुविधा के इस्तेमाल को अपनी तौहीन समझने लगे हैं जो सरकारी है I  हालात इतने खराब हैं कि यदि कोई व्यक्ति पैसे खर्च करने में ज़रा सा भी सक्षम है तो वह सरकारी राशन की दुकान से सस्ते में मिलने वाला गेहूं , चावल नहीं खरीदता I  और तो और सरकारी चिकित्सालयों में मुफ्त में मिलने वाले कंडोम पर भी भरोसा नहीं करता I

वैसे तो ये सरकार के लिए चिंता की बात होनी चाहिए लेकिन सरकार चलाने वाले राजनेता और अधिकारी दोनों ही निश्चिन्त और संतुष्ट दीखते हैं I  न्यायालयों को भी इस बात पर चिंता जाहिर करते नहीं देखा कि सरकारी स्कूल, अस्पताल, रोडवेज, दूरसंचार आदि इतने बदहाल क्यों हैं I 

कुछ दशक पहले तक स्तिथि इतनी खराब नहीं थी I  बात कीजिये राजनेताओं और अधिकारियों से, इनमें से अधिकाँश ने किसी सरकारी अस्पताल में जन्म लिया होगा, किसी सरकारी स्कूल में पढ़ाई की होगी लेकिन आज वे अपने बच्चों के साथ कदापि एसा नहीं करेंगे I

ये आजादी के बाद पाँचवें और छठवें दशक में सरकारी व्यवस्था में हुए पतन का सबूत है I  ये सरकारी प्रश्रय में निजी व्यवसाय के पनपने का भी सबूत है I ये सरकारी विभागों में सर्व-व्याप्त भ्रष्टाचार का भी सबूत है I और ये नेहरु के समाजवादी भारत का मनमोहन सिंह के पूँजीवादी भारत में तब्दील हो जाने का सत्य भी है I

हमने अपनी आंखों से देखा है कि सरकारी अमला किस तरह से एक सरकारी व्यवस्था को धीरे-धीरे इसलिए खराब करता है ताकि उसके बरक्स प्राइवेट बेहतर दिखने लगे और सरकारी व्यवस्था दम तोड़ दे या फिर उसका निजीकरण किया जा सके I   

आज एक सिविल सोसायटी एसे भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है I पहले भी इस तरह की सिविल सोसाइटियों ने आन्दोलन कर के कानून में परिवर्तन कराये हैं I आरटीआई, रोजगार गारंटी योजना, नर्मदा बचाओ आन्दोलन इसके उदाहरण हैं I परन्तु क्या क़ानून बनाने मात्र से राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों  और कर्मचारियों की कार्य क्षमता बढ़ सकती है?  परस्थितियाँ उस दिन बदलेंगी जब वे लोग आत्म चिंतन कर अपने कार्य के प्रति समर्पित होंगे I

यह समय है जब हम भ्रष्टाचार जैसी व्यापक समस्या के बारे में या अन्ना हजारे के आन्दोलन के बारे में बात करते समय ये भी सोचें कि जो कुछ भी सरकारी है वह धीरे-धीरे निकृष्ट क्यों होता जा रहा है.. सिवाय सरकारी नौकरी के I  और ये भी सोचें कि एक बार सरकारी नौकरी में आने के बाद क्यों निकृष्ट हो जाते हैं हम लोग !!!

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