Wednesday 7 December 2011

विलुप्त होतीं नातेदारियाँ


बचपन में हम लोग विविध भारती का सतरंगी कार्यक्रम और बिनाका गीतमाला सुनते हुए बड़े हुए। आज ठीक उसी उम्र के हमारे बच्चों के पास बीसियों टीवी चैनल्स, इन्टरनेट गेम्स, एक्स-बॉक्स-360 जैसे कई विकल्प मौजूद हैं। उन दिनों गर्मियों की छुट्टी में नाना-नानी, दादा-दादी के घर पर तमाम रिश्तेदारियों का मजमा लग जाया करता था। परन्तु  आज-कल संयुक्त परिवार घटते जा रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण और उत्तर आधुनिकता ने जीवन में अनेक आवश्यक-अनावश्यक लालसाएं भर दी हैं। जिन्दगी एक दौड़ बन गयी है, जिसकी मंजिल दूर खिसकती जा रही है। बेशक, महानगरीय मध्य वर्ग का जीवन स्तर सुधरा है, पर उसे उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है।

पहले चाचा-ताऊ, मामा-मौसी, भाई-भतीजे, चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों जैसे रिश्तों का अंबार रहता था। परन्तु फैमिली प्लानिंग के इस युग में रिश्ते भी लिमिटेड ऑप्शन के साथ मिलने लगे हैं। जैसे- भाई या बहन में कोई एक, आगे चल कर भाभी या बहनोई में कोई एक, देवर या ननद में कोई एक। परिणाम स्वरुप अगली पीढ़ी में चाचा ताऊ और बुआ में कोई एक, चाची ताई फूफा में कोई एक, मामा मौसी में कोई एक, मामी मौसा में कोई एक। इसी प्रकार चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई बहनों, भतीजों- भांजों की तादाद भी काफी कम हो रही है।

अब समय एसा आ गया है कि ज्यादातर दम्पतियों के घर एक ही बालक/बालिका  है। अगर एसा चला तो अगली पीढ़ी में उसकी नातेदारी तो बिलकुल ख़त्म। ना भाई, ना बहन, ना बहनोई, ना भाभी, ना चाचा-चाची, ना ताऊ-ताई, ना मामा-मामी, ना बुआ-फूफा, ना मौसा-मौसी। फिर कजंस, नैफ्यु, नीस जैसे रिश्तों की तो बात ही छोड़ दो।  

बात थोड़ी कड़वी है। पर है सच। है ना..  

3 comments:

  1. good one, agree with you..

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  2. बिलकुल सच है... शैलेन्द्र जी ...

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  3. बिलकुल सच कहा. महसूस करता हूँ कि आज हर रिश्ते की परिभाषा, शर्तें और समीकरण बदल गए हैं क्योंकि हमारी मौलिक संवेदनाएं, सरोकार और मूल्य बदल गए हैं. सिमटते परिवार के अलावा भाषा की भी इसमें अहम् भूमिका है. दादी की भाषा नाती की भाषा से बिलकुल अलग है. अपनी भाषा, अपनी लोक संस्कृति के शब्द, लोकोक्तियाँ, मुहावरे और इनसे उपजती खालिस देसी अनुभूति आज की पीढ़ी के संसार से विलुप्त होते जा रहे हैं. आधुनिकता की दौड़ में हम इसका नुकसान आज महसूस नहीं करेंगे, जब करेंगे तब शायद बहुत देर हो चुकी होगी!

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