इस बार होली के बाद ही अपने घर जा सका। घर ज्यादा दूर नहीं है। कुल मिला के दिल्ली के अपने घर से पैतृक घर तक का रास्ता ठीक १४० किमी. है। सुबह- सुबह ही पहुँच गया था। माँ आँगन में बैठी सूप हाथों में लिए गेहूँ फटक रही थी। देखते ही मुस्करा कर खड़े होते हुए बोली- "आ गए बेटा"। मैं देख रहा था कि अब उनको एकदम से उठने में भी दिक्कत होने लगी है। हाथ से अपने घुटनों को दबाते हुए, चेहरे पर दर्द के भावों को अपनी चिर परचित मुस्कराहट के पीछे छुपाती हुयी धीरे-धीरे खड़ी हो पायीं। उनको इस उम्र में इस तरह के भारी काम करते देख कर मेरा चित्त एक विचित्र वेदना से भर जाता है। यह जानते हुए कि हम चाहे कितना भी रोकें ये इस तरह के कामों को बंद नहीं करेंगी, चरणश्पर्श के बाद मैंने धीरे से कहा- "ये सब क्या करती रहती हो?" मुस्कारते हुए बोलीं- "देख.. चना, सोयाबीन वगैरा मिक्स किया है.. अभी तेरे डैडी को भेजती हूँ चक्की पर.. पिसवा लायेंगे... आधा तुम ले जाना आधा भाई ले जाएगा।" बाहर जाकर डैडीजी को आवाज दी- "अरे कहाँ गए.. सुनते हो.. गाड़ी निकाल लो... गेहूँ तैयार हैं।" फिर वापस अन्दर आकर बोलीं- "कुछ खाया?... चाय बनवाऊँ या सीधे खाना ही खाओगे... हाँ तेरे लिए चंदियाँ और अनस्से बना के रक्खे हैं... जा.. जाके रसोई से ले आ।"
होली पर गुजिया तो हर घर में बनतीं है, हमारी तरफ कहीं-कहीं अनस्से भी बनाए जाते हैं, चंदियाँ केवल अपनी नानी के घर में और अपने ही घर में मैंने देखी हैं। गजब स्वाद होता है इन दोनों का। मुझे बहुत पसंद है। एक बार ख़त्म हो जायें तो अगले साल की होली का इन्तजार करता हूँ। खूब मेहनत लगती है इनको बनाने में। झंझट भी बहुत करने पड़ते है। सामग्रियों का अनुपात, विधि या कढ़ाई में तेल का तापमान ज़रा भी बदला नहीं कि सब छित्तर..। ओखली में थोड़ी देर पहले भिगोये हुए चावलों को कूटते-कूटते भुजाओं में दर्द हो आता है... लेकिन क्योंकि मुझे पसंद है इसलिए हर साल बनाती हैं। इधर कुछ दिनों से मेरा गला खराब चल रहा था। इसलिए पत्नी के बनाए हुए दही-बड़े बस चखे भर थे... लेकिन माँ के हाथ की बनी हुयी, हींग-जीरे के तड़के वाले खूब खट्टे रायते में डूबी हुयी चंदियाँ... अपने आपको कैसे रोकूँ.. छक के खायीं।
अभी ढ़ाई महीना हुआ डैडीजी को सेवानिवृत हुए। कानपुर से रिटायर हुए थे। फेयरवेल पार्टी में हम दौनों भाईयों को भी बुलाया गया। खूब सारी बातें की गयीं डैडीजी के बारे में... माहौल थोड़ा सेंटीमेंटल हो लिया था। नौकरी के साथ-साथ काफ़ी इज्जत कमाई है डैडी जी ने।
सोचता था हर महीने घर जाया करूँगा... पर देखो त्यौहार पर भी नहीं जा पाया। होली के अगले दिन बेटे का पेपर था। "कोई बात नहीं बेटा, फुर्सत से आ जाना" - फोन पर डैडी जी की मायूसी साफ़ महसूस हुयी।
माँ-बाप के बारे में लिखना कितना मुश्किल होता है.. आज लिखने बैठा तो समझ आ रहा है... बार-बार जी भर आता है.. !!!