Friday, 23 December 2011

..और वो मुसलमान हो गयी


आजकल मुस्लिम आरक्षण बिल पर काफी चर्चा हो रही है... टीवी पर राजनेताओं और धर्मिक संगठनों के नेतागण लगे हुए थे पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ कर सांप्रदायिक माहौल तैयार करने में उनके बीच जारी बहस को सुनते-सुनते दो पुरानी घटनायें याद आ गयीं-- 
पहली:
गुजरात दंगे हुए तकरीबन कुछ महीने ही बीते थे पुरानी दिल्ली स्टेशन पर एक हिन्दू औरत अपने जवान बेटे के साथ बैठी थी और उसी बैंच पर दूसरे कौने पर एक मुसलमान औरत थोड़ी देर के बाद उनमें बातचीत का सिलसिला चल पड़ा- 
"अजमेर जा रही हो?" पान चबाते हुए मुस्लिम औरत ने पूछा 
"हाँ लेकिन पुष्कर जाना है...  ब्रह्मा जी के मंदिर में मेला लगा है ना.. "
"हूँ...  अजमेर शरीफ दरगाह भी जायेंगी?"
"नहीं.."
"अरे जब इतना दूर जा रहीं हैं तो आपको वहाँ भी जाना चाहिए.. "
तभी हिन्दू लड़का भी इस बातचीत में कूद गया - "आप पुष्कर चलेंगी हमारे साथ?"
"कतई नहीं... बुतपरस्ती हराम है हमारी कौम में" मुस्लिम औरत ने जोरदार तरीके से कहा
"तो हम क्यों जायें किसी मजार पे?" लड़का कड़वाहट लिए रूखेपन से बोला
"बहन, आपका लड़का तो निहायती बद्तमीज़ है.. एसे लोगों की वजह से ही साम्प्रदायिकता बढ़ रही है मैंने तो इसलिए कहा था कि दरगाह पे सारी कौमें- मुसलाम, हिन्दू सालों से जा रहे है"
"ठीक कह रही हो बहन, इस मुल्क में साम्प्रयिक सद्भावना का ठेका हिन्दुऔ ने ही ले रखा है ना.." हिन्दू औरत ने धीरे से जबाब दिया..


ये नेता लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किस तरह सांप्रदायिक ताकतों का इस्तेमाल करते हैं और लोगों के दिलो-दिमाग में दूसरे धर्म के प्रति द्वेष पैदा कर देते हैं, ये उसका एक उदाहरण मात्र है  भले ही यह कड़वाहट कुछ समय ही रहती है और बाद में सब कुछ सामान्य होने पर लोग भाई चारे के साथ रहने भी लगते हैं परन्तु युवा और किशोर मस्तिष्क पर इसका नकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है
 

दूसरी घटना थोड़ी और पुरानी है १९९५ के अलीगढ दंगों के कुछ समय बाद एक दिन मैं अलीगढ में तस्वीर-महल सिनेमा की तरफ से सासनी गेट की तरफ रिक्शे से आ रहा था समद रोड पर एक लड़की ने रिक्शा रुकवाया उसको मेरे रास्ते में ही आगे कहीं जाना था तो रिक्शे वाले ने मुझसे पूछा- "बैठा लूँ क्या?"  अलीगढ में ये आम बात है.. एक ही दिशा में जाने वाली अगर दो सवारी मिल जातीं हैं तो रिक्शे वाले पहली सवारी से पूछ कर बैठा लेते हैं इससे उनको अतिरिक्त आमंदनी भी हो जाती है लड़की मॉडर्न लग रही थी उन दिनों छोटे शहरों में जींस पहनने वाली लडकियाँ मॉडर्न ही मानी जाती थीं मैं किशोरावस्था में था तो मुझे क्या आपत्ति होनी थी मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी थोडा आगे जाने पर सामने से स्कूटर पर आते हुए एक व्यक्ति ने लड़की से पूछा- "ज़ोया, कहाँ जा रही है?" लड़की ने जबाब दिया "खालू के घर.."   बस ये सुनते ही जैसे झटका सा लगा मैं उस छोटे से रिक्शे में जितना दूर जा सकता था खिसक गया जिसका साथ अभी तक सुखद लग रहा था वो अब अचानक से 'मुसलमान' हो गयी...

Wednesday, 7 December 2011

विलुप्त होतीं नातेदारियाँ


बचपन में हम लोग विविध भारती का सतरंगी कार्यक्रम और बिनाका गीतमाला सुनते हुए बड़े हुए। आज ठीक उसी उम्र के हमारे बच्चों के पास बीसियों टीवी चैनल्स, इन्टरनेट गेम्स, एक्स-बॉक्स-360 जैसे कई विकल्प मौजूद हैं। उन दिनों गर्मियों की छुट्टी में नाना-नानी, दादा-दादी के घर पर तमाम रिश्तेदारियों का मजमा लग जाया करता था। परन्तु  आज-कल संयुक्त परिवार घटते जा रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण और उत्तर आधुनिकता ने जीवन में अनेक आवश्यक-अनावश्यक लालसाएं भर दी हैं। जिन्दगी एक दौड़ बन गयी है, जिसकी मंजिल दूर खिसकती जा रही है। बेशक, महानगरीय मध्य वर्ग का जीवन स्तर सुधरा है, पर उसे उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है।

पहले चाचा-ताऊ, मामा-मौसी, भाई-भतीजे, चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों जैसे रिश्तों का अंबार रहता था। परन्तु फैमिली प्लानिंग के इस युग में रिश्ते भी लिमिटेड ऑप्शन के साथ मिलने लगे हैं। जैसे- भाई या बहन में कोई एक, आगे चल कर भाभी या बहनोई में कोई एक, देवर या ननद में कोई एक। परिणाम स्वरुप अगली पीढ़ी में चाचा ताऊ और बुआ में कोई एक, चाची ताई फूफा में कोई एक, मामा मौसी में कोई एक, मामी मौसा में कोई एक। इसी प्रकार चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई बहनों, भतीजों- भांजों की तादाद भी काफी कम हो रही है।

अब समय एसा आ गया है कि ज्यादातर दम्पतियों के घर एक ही बालक/बालिका  है। अगर एसा चला तो अगली पीढ़ी में उसकी नातेदारी तो बिलकुल ख़त्म। ना भाई, ना बहन, ना बहनोई, ना भाभी, ना चाचा-चाची, ना ताऊ-ताई, ना मामा-मामी, ना बुआ-फूफा, ना मौसा-मौसी। फिर कजंस, नैफ्यु, नीस जैसे रिश्तों की तो बात ही छोड़ दो।  

बात थोड़ी कड़वी है। पर है सच। है ना..