कुछ चीजें आनुवंशिक होती हैं.. ऐसा ही सिनेमा का शौक मुझे अपने पेरेंट्स से विरासत में मिला है.. बचपन में वो अक्सर हमको मूवी दिखने ले जाते थे... बड़े होने पर हम खुद ही दोस्तों के साथ जाने लगे... अब यही शौक बेटे और पत्नी को भी लग गया है.. अभी भी जब हम लोग घर जाते हैं, डैडी जी अक्सर फिल्म का प्रोग्राम बना लेते हैं..
कालेज टाइम में एक क्रेज था.. "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो" देखने का.. सबसे पहली बार "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो" दोस्तों के साथ देखने गया -- फिल्म थी - "सड़क" . काफी मारा-मारी के बाद टिकट्स तो ले लिए, लेकिन जब अन्दर घुसने लगे तो गेट कीपर ने रोक लिया -- "पिक्चर एडल्ट है !!" ... बस मायूस हो के साइकल स्टैंड पर खड़े हो गए .. फिर २० -२२ रुपये की टिकट 35 रुपये में बेच दी.. मुझे अभी तक याद है उन एक्स्ट्रा पैसों से कैम्पा कोला और पेस्ट्री की पार्टी में जो मजा आया वो शायद पिक्चर देखने में नहीं आता... एक और मजेदार वाकया नहीं भूलता.. इस बार टिकट्स लेने में ही शर्ट फट गयी थी.. पुलिस ने लाठियां भी बजायीं थीं... मूवी थी - "राजा बाबू" . और एक बार तो कुछ को छोड़ के सारी की सारी क्लास बंक मार के सिनेमा पहुँच गयी .. मूवी थी- "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे".
अब ये सब याद आ रहा है क्यों कि अभी तीन दिन पहले ही सुबह ही सुबह न्यूज पेपर देख कर बेटे ने पिक्चर देखने की फरमाइश कर दी. फ्राईडे का दिन और गुड-फ्राईडे की छुट्टी भी, तो एकदम से दिमाग में आया कि चलो आज देखा जाए "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो". तुरंत पत्नी जी पर हुक्म बजा दिया कि लंच छोड़ो ब्रेक-फास्ट हैवी कराओ.. बस सुबह १० बजे तक पहुँच गए पीवीआर साकेत... पिक्चर थी बेटे की फरमाइश वाली - "Zokkomon". टिकट्स ले कर ऊपर पहुंचे तो देखा एकदम सन्नाटा.. ऑडिटोरियम के बहार बस एक दो पीवीआर के स्टाफ के लोग ही थे.. ऑडिटोरियम मैं भी हम तीनों के अलावा कोई भी नहीं... पिक्चर शुरू हो गयी... और बेटे की मस्ती भी ... उसने तो सारे हाल में घूम-घूम के पिक्चर देखी... लग रहा था की स्पेशल स्क्रीनिंग हो रही है हमारे लिए.. और अंदाज कुछ इस कदर कि इंटरवल में एक लड़की आयी और बोली- "सर, कुछ लेंगे.. पोपकोर्न - पेप्सी वगैरा... "
कालेज टाइम में एक क्रेज था.. "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो" देखने का.. सबसे पहली बार "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो" दोस्तों के साथ देखने गया -- फिल्म थी - "सड़क" . काफी मारा-मारी के बाद टिकट्स तो ले लिए, लेकिन जब अन्दर घुसने लगे तो गेट कीपर ने रोक लिया -- "पिक्चर एडल्ट है !!" ... बस मायूस हो के साइकल स्टैंड पर खड़े हो गए .. फिर २० -२२ रुपये की टिकट 35 रुपये में बेच दी.. मुझे अभी तक याद है उन एक्स्ट्रा पैसों से कैम्पा कोला और पेस्ट्री की पार्टी में जो मजा आया वो शायद पिक्चर देखने में नहीं आता... एक और मजेदार वाकया नहीं भूलता.. इस बार टिकट्स लेने में ही शर्ट फट गयी थी.. पुलिस ने लाठियां भी बजायीं थीं... मूवी थी - "राजा बाबू" . और एक बार तो कुछ को छोड़ के सारी की सारी क्लास बंक मार के सिनेमा पहुँच गयी .. मूवी थी- "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे".
अब ये सब याद आ रहा है क्यों कि अभी तीन दिन पहले ही सुबह ही सुबह न्यूज पेपर देख कर बेटे ने पिक्चर देखने की फरमाइश कर दी. फ्राईडे का दिन और गुड-फ्राईडे की छुट्टी भी, तो एकदम से दिमाग में आया कि चलो आज देखा जाए "फर्स्ट डे - फर्स्ट शो". तुरंत पत्नी जी पर हुक्म बजा दिया कि लंच छोड़ो ब्रेक-फास्ट हैवी कराओ.. बस सुबह १० बजे तक पहुँच गए पीवीआर साकेत... पिक्चर थी बेटे की फरमाइश वाली - "Zokkomon". टिकट्स ले कर ऊपर पहुंचे तो देखा एकदम सन्नाटा.. ऑडिटोरियम के बहार बस एक दो पीवीआर के स्टाफ के लोग ही थे.. ऑडिटोरियम मैं भी हम तीनों के अलावा कोई भी नहीं... पिक्चर शुरू हो गयी... और बेटे की मस्ती भी ... उसने तो सारे हाल में घूम-घूम के पिक्चर देखी... लग रहा था की स्पेशल स्क्रीनिंग हो रही है हमारे लिए.. और अंदाज कुछ इस कदर कि इंटरवल में एक लड़की आयी और बोली- "सर, कुछ लेंगे.. पोपकोर्न - पेप्सी वगैरा... "